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________________ १२ अकलङ्कग्रन्थत्रय [ प्रन्थकार शुभतुंग के मंत्री पुरुषोत्तम के ज्येष्ठ पुत्र थे । श्री देवचन्द्रकृत कनड़ी भाषाके राजावलीकथे नामक ग्रन्थ में उन्हें काञ्ची के जिनदास ब्राह्मण का पुत्र बताया है। इनकी माता का नाम जिनमती था । तीसरा उल्लेख राजवार्तिक के प्रथम अध्यायके अन्त में पाया जाने वाला यह श्लोक है "जीयाच्चिरमकलंक ब्रझा लघुहव्वनृपतिवरतनयः । अनवरतनिखिलजननुतविद्यः प्रशस्तजनहृद्यः || ” इस श्लोक के अनुसार लघुव्व राजाके वरतनय - ज्येष्ठ पुत्र थे । विद्वानों की आजतक की पर्यालोचना से ज्ञात होता है कि वे राजावलीकथे का वर्णन प्रमाणकोटि में नहीं मानते और कथाकोश के वर्णन की अपेक्षा उनका झुकाव राजवार्तिक के श्लोक की ओर अधिक दिखाई देता है । मुझे तो ऐसा लगता है कि- लघुहव्व और पुरुषोत्तम एक ही व्यक्ति हैं । राष्ट्रकूटवंशीय इन्द्रराजद्वितीय तथा कृष्णराजप्रथम भाई भाई थे । इन्द्रराज द्वितीय का पुत्र दन्तिदुर्गद्वितीय अपने पिता की मृत्यु के बाद राज्याधिकारी हुआ । कर्नाटक प्रान्त में पिता को व या अप्प शब्द से कहते । सम्भव है कि दन्तिदुर्ग अपने चाचा कृष्णराज को भी अन्य शब्द से कहता हो । यह तो एक साधारणसा नियम है कि जिसे राजा 'व' कहता हो, उसे प्रजा भी 'अव्व' शब्द से ही कहेगी । कृष्णराज जिसका दूसरा नाम शुभंग था, दन्तिदुर्ग के बाद राज्याधिकारी हुआ। मालूम होता है कि पुरुषोत्तम कृष्णराज के प्रथम से ही लघु सहकारी रहे हैं, इसलिए स्वयं दन्तिदुर्ग एवं प्रजाजन इनको 'लघु अव्व' शब्द से कहते होंगे । बाद में कृष्णराज के राज्यकाल में ये कृष्णराज के मंत्री बने होंगे । कृष्णराज अपनी परिणत अवस्था में राज्याधिकारी हुए थे । इसलिये यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि पुरुषोत्तम की अवस्था भी करीब करीब उतनी ही होगी और उनका ज्येष्ठ पुत्र अकलंक दन्तिदुर्ग की सभा में, जिनका उपनाम 'साहसतुंग' कहा जाता है, अपने हिमशीतल की सभा में होने वाले शास्त्रार्थ की बात कहे । पुरुषोत्तम का 'लघुव्व' नाम इतना रूढ़ हो गया था कि कलंक भी उनके असली नाम पुरुषोत्तम की अपेक्षा प्रसिद्ध नाम 'लघु' अधिक पसन्द करते होंगे । यदि राजवार्तिकवाला श्लोक कलंक या तत्समकालीन किसी अन्य आचार्य का है तो उसमें पुरुषोत्तम की जगह 'लघुप्रव' नाम आना स्वाभाविक ही है । 'लघुप्रन्व' एक ताल्लुकेदार होकर भी विशिष्ट राजमान्य तो थे ही और इसीलिए वे भी नृपति कहे जाते थे । अकलंक उनके वरतनय - ज्येष्ठ पुत्र या श्रेष्ठ पुत्र थे । यद्यपि अभी तक इतिहास से यह मालूम हो सका है कि- मान्यखेट राजधानी की प्रतिष्ठा महाराज अमोघवर्ष ने की थी । पर इसमें सभी ऐतिहासिक विद्वानों का एकमत नहीं है । यह तो सम्भव है कि अमोघवर्ष ने इसका जीर्णोद्धार करके पुनः प्रतिष्ठा की हो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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