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सम्पादकीय -
छाँटना शुरू किया, और उसी के आधार से प्रेस कापी बनाई । मुख्तार सा० के संग्रह से मिलान करने पर, जिसमें पं० कैलाशचन्द्रजी के परिवर्तनों की भी सूचना थी, मैंने अपने संग्रह को पं० कैलाशचन्द्रजी के संग्रह से बहुत कुछ मिलता जुलता पाया। बाद में कारिकाओं की संख्या तथा पाठ के निर्णयार्थ पं० कैलाशचन्द्रजी के संग्रह से मिलान भी किया ।
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मुख्तारा के संग्रह में तो विवादग्रस्त कारिकाओं की संख्या ५-६ है । जिसे मुख्तारसा ने पं० कैलाशचन्द्रजी की सूचनानुसार विचाराधीन रखा है । पर पं० कैलाशचन्द्रजी तथा मेरे संग्रह में पारस्परिक विचार विमर्श के बाद विवादग्रस्त कारिका सिर्फ एक ही बची है । प्रथमपरि० की चौथी 'हिताहिताप्ति' वाली कारिका पं० कैलाशचन्द्रजी मूल की नहीं मानते हैं । उनका विचार है कि-न्यायविनिश्चयविवरण की प्रति में 'खल - क्षणमसङ्कीर्ण' कारिका पर ११७ का अंक पड़ा है । जो मेरे संग्रह से यदि 'हिता - हिताप्ति' वाली कारिका निकाल दी जाय तो ठीक बैठता है । अर्थात् १९७॥ वां अंक उसपर आयगा | आधी कारिका का हेर फेर तो किसी श्लोक को ३ चरण का मानने से भी हो सकता है । मेरा विचार है कि - जिस तरह अन्य कारिकाएँ हम लोगों ने व्याख्यान के आधार से ही संकलित की हैं उसी तरह जब इस कारिका का भी यथावत् व्याख्यान विवरण में पाया जाता है तब इसे भी मूल की ही मानना चाहिए । इस कारिका में इन्द्रियप्रत्यक्ष का लक्षण करने के बाद ही विवरण में शंका की गई है कि अनिन्द्रियप्रत्यक्ष तथा अतीन्द्रियप्रत्यक्ष का लक्षण क्यों नहीं कहा ? इसका उत्तर यह दिया है कि वृत्ति में इसका लक्षण है । इससे भी मालूम होता है कि अकलङ्कदेव ने इन्द्रियप्रत्यक्ष का लक्षण तो कारिका में किया है तथा अनिन्द्रिय और अतीन्द्रियप्रत्यक्ष का लक्षण वृत्ति में । ११७ वाली संख्याका निर्वाह तो तीन कारिकाओं को तीन तीन चरण वाली मानकर भी किया जा सकता है । बाकी कारिकाओं के विषय में मेरा तथा पं० कैलाशचन्द्रजी का प्रायः समान मत है ।
इस तरह तीन भिन्न संग्रहों के आधार से न्यायविनिश्चय मूल का संपादन किया गया है । न्यायविनिश्चयविवरण की बनारसवाली प्रति अत्यन्त अशुद्ध ही नहीं है, किन्तु उसमें कई जगह ४-४ पत्र तक के पाठ छूटे हैं, २-४ पंक्तियाँ छूटना तो साधारणसी बात है । मैंने इसकी शुद्धि के लिए मूडविद्री के वीरवाणीविलास भवन से न्यायविनि
ववरण की ताडपत्रीय प्रति बुलाई। प्रति कनड़ी अक्षरों में है । अतः एक कनड़ीवाचक की सहायता से कारिकाओं के मूलस्थलों के विवरणांश को शुद्ध किया और छूटे हुए पत्रों में से मूलांश का संग्रह किया । इतना संभव प्रयत्न होने पर यह संग्रह पाठकों के सामने आया है । मैं स्वयं अभी इसकी पूर्णता के विषय में नि:शंक नहीं हूँ; क्योंकि - सिद्धिविनिश्चयटीका ( पृ० ६६ B. ) में आए हुए " कथमन्यथा न्यायविनिश्चये
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