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अकलङ्कप्रन्थत्रय
इतिहास तथा विस्तृत आन्तरिक विषयपरिचय है। आन्तरिक विषयपरिचय में अकलंकदेव के प्रस्तुत ग्रन्थों में आए हुए विचारों का विषयदृष्टि से विवेचन है । यह परिचय प्रस्तुतग्रन्थत्रय के हार्द को समझने में तो सहायक होगा ही पर इससे भी अधिक मदद न्यायशास्त्र की साधारण भूमिकावाले जैनन्याय के प्रवेशार्थियों को देगा । इस विषयपरिचय में प्रस्तुतग्रन्थत्रय का सार तो आ ही गया है, साथ ही साथ बहुत से महत्त्वपूर्ण विषयों का स्वतन्त्र विवेचन भी है। इससे जैनन्याय के विशिष्ट अभ्यासी भी नवीन विचारसामग्री पा सकेंगे। $ ३. संशोधन सामग्री
लघीयत्रय सविवृति-न्यायकुमुदचन्द्र की ईडरभंडारवाली प्रति के प्रारम्भ में विवृति के ११ त्रुटितपत्र विद्यमान हैं। सर्वप्रथम इन्हीं पत्रोंके आधार से इसकी टीका न्यायकुमुदचन्द्र से मैंने और मित्रवर पं० कैलाशचन्द्रजी ने विवृति का पूरा संकलन किया था । उन त्रुटित विवृति के पत्रों में करीब ६१ कारिकाओं की ही विवृति थी। इन त्रुटित पत्रों का भी प्रस्तुत संस्करण में उपयोग किया है। इनकी संज्ञा 'ई०' रखी है । इसके पश्चात् मास्टर मोतीलालजी संघी तथा पं० चैनसुखदासजी काव्यतीर्थ की कृपा से जयपुर से एक विवृति की प्रति प्राप्त हुई। यह प्रति प्रायः शुद्ध है। इस प्रति के मिलने से संकलित विवृति को पूर्णता तथा प्रामाणिकता प्राप्त हुई। इस प्रति का 'ज.' संकेत रखा है। इसमें कुल १५ पत्र हैं। एक पत्रमें १३ पंक्तियाँ हैं । एक दो पत्रोंमें १२ तथा ११ पंक्तियाँ भी हैं । पत्र की लम्बाई चौड़ाई "१०१४४३" इंच है। एक पंक्ति में ४१-४२ अक्षर हैं।
न्यायविनिश्चय-न्यायविनिश्चयमूल की कोई प्रति आज तक नहीं मिली। इसका उद्धार न्यायविनिश्चयविवरण से किया गया है । 'अनेकान्त' (द्वितीयवर्ष पृ० १०४) में पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने इसकी उद्धार कथा में लिखा है कि-'इसके उद्धार का सर्वप्रथम प्रयत्न पं० जिनदास-पार्श्वनाथ शास्त्री सोलापुर ने किया । वह उद्धृत अंश मुख्तार सा० को प्राप्त हुआ। मुख्तार सा० ने उसकी बहुत सी त्रुटियाँ निकालकर पं० माणिकचन्द्रजी सहारनपुर की सहायता से उसे क्रमबद्ध तथा पूर्णप्राय किया।' यह कापी मुख्तार सा० द्वारा इसके सम्पादनकाल में मुझे प्राप्त हुई ।
इसके बाद दूसरा प्रयत्न स्याद्वादविद्यालय के धर्माध्यापक पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने किया। मुख्तार सा० के संग्रह से उसका मिलान करने पर मालुम हुआ कि-मुख्तार सा. के संग्रह में कुछ कारिकांश विवरण में आए हुए पूर्वपक्षीय ग्रन्थों के थे। इन्होंने कुछ नवीन पर सन्दिग्ध पद्यों का पता लगाया। जब यह निश्चय हुआ कि-प्रस्तुत संस्करण में न्यायविनिश्चय मूल भी छपाया जाय, तो मैंने भी न्यायविनिश्चयविवरण से मूलभाग
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