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________________ अकलकग्रन्थत्रय कि-प्रस्तुतग्रन्थगत खास खास शब्दों पर ऐतिहासिक एवं तात्त्विक विवेचन के साथ ही साथ भावोद्घाटन भी संस्कृत में ही किया जाय । तदनुसार ही लघीयस्त्रयके प्रमाणप्रवेश के प्रथमपरिच्छेद के टिप्पण लिखे भी । पीछे तो एक तरफ से इस कार्य की बहुसमयसाध्यता और विस्तार, तथा दूसरी ओर इने गिने विद्वानों के सिवाय साधारण अभ्यासियों के लिए इसकी अल्पोपयोगिता का विचार करने से यही उचित प्रतीत हुआ कि इस टिप्पणभाग को इतना विस्तृत न किया जाय । अतः मध्यममार्ग निकालकर मुख्यतया निम्नदृष्टियों के अनुसार टिप्पण लिखे हैं १-अकलंकदेव ने प्रस्तुतग्रन्थों में जिन पूर्ववर्ती और समवर्ती वादों या विचारों की समालोचना की है उन पूर्वपक्षीय विचारों का उन्हीं ग्रन्थकारों के ग्रन्थों से अवतरण देकर संग्रह तथा स्पष्टीकरण । २-यदि पूर्वपक्ष के आधारभूत पूर्वकालीन या समकालीन ग्रन्थ उपलब्ध न हों तब भी उन पूर्वपक्षीय विचारों का अन्य उत्तरकालीन ग्रन्थकारों के ग्रन्थों के अवतरण द्वारा भी स्पष्टीकरण । ३-पूर्वपक्ष के भाव को समानतन्त्रीय ग्रन्थों में आए हुए पूर्वपक्ष के शब्दों द्वारा विशदीकरण । तात्पर्य यह कि-प्रस्तुतग्रन्थगत पूर्वपक्षीय विचारों का पूर्ववर्ती, समवर्ती और उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों के ग्रन्थों से, तथा अकलंकदेवकी तरह उन पूर्वपक्षों का खंडन करने वाले बौद्धादिग्रन्थों से भी अवतरण देकर पूरा पूरा खुलासा करना। ४-अकलंकदेव ने जिन शब्दों या विचारों द्वारा इतरमतों का निरसन किया है उन उत्तरपक्षीय शब्दों और विचारों की पूर्वकालीन, समकालीन तथा उत्तरकालीन ग्रन्थों से शाब्दिक और आर्थिक तुलना। ५-प्रस्तुत तीनों ग्रन्थों के गद्य-पद्यांश जिन जिन ग्रन्थों में जिस जिस पाठभेद से उद्धृत मिलते हैं, उन ग्रन्थों का स्थल निर्देश करके उन गद्यपद्यांशोंका पाठभेद के साथ आकलनं। जिससे मूलग्रन्थों की पाठशुद्धि का समर्थन हो। ६-प्रस्तुतग्रन्थगत कारिकाओं की अन्य आचार्यों द्वारा की गईं विविध व्याख्याओं का तत्तद्रन्थों से सञ्चयन । ७-अकलंक के प्रस्तुतग्रन्थत्रयगत विचारों की जिन ग्रन्थों में आलोचना की गई है उन ग्रन्थों के उस आलोचनात्मक भाग का संकलन । ८-प्रस्तुत ग्रन्थों में आए हुए दर्शनान्तरीय पारिभाषिक शब्दों का प्रामाणिक रूप से भावोद्घाटन। 6-प्रमाणसंग्रह के टिप्पण लिखते समय यह बात और भी ध्यान में रखी गई है कि-इसकी कारिकाओं या गद्यभाग की अन्य ग्रन्थों में जो भी व्याख्या उपलब्ध हो उसका पूरा संग्रह किया जाय । जिससे इस ग्रन्थ की उत्थानवाक्य न देने की कभी भी यथासंभव पूर्ण हो जाय और अमुकभाग का अर्थ भी स्पष्ट हो जाय । Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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