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________________ सम्पादकीय आर्थिक शिलाधार पर ही उत्तरकालीन आचार्यों ने जैनन्याय का महाप्रासाद खड़ा किया है। अकलंकदेव का वाक्यविन्यास एवं प्रतिपादनशैली इतनी दुरवगाह है कि उसमें न्यायशास्त्र की योग्य भूमिका रखनेवाले लोगों को भी बिना आलम्बन के सीधे ही प्रवेश करना वस्तुतः कठिन है । इसीलिए प्रभाचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्र से कारिकाओं के अनेक उत्थानवाक्यों से चुन कर वे उत्थान वाक्य दिए हैं, जिनसे कारिका का सामान्यतः प्रतिपाद्य अर्थ भी भासित हो जाय, और प्रतिपाद्य विषयों का स्थूल वर्गीकरण भी हो जाय । इसी तरह न्यायविनिश्चय के ऊपर वादिराजसूरिविरचित २० हजार श्लोक प्रमाण 'न्यायविनिश्चयविवरण' नाम की टीका उपलब्ध है, जो आजतक अमुद्रित है । उसमें न्यायविनिश्चय की कारिकाओं के शाब्दिक तथा आर्थिक दृष्टि से दस दस अर्थ तक किए गए हैं। साधारणतः २।३ अर्थ तो चलते ही हैं। उस लिखितविवरण से विषयवर्गीकरण को ध्यान में रखकर कारिकार्थस्पर्शी उत्थानवाक्य न्यायविनिश्चय में छाँटकर दे दिए हैं। उत्थानवाक्यों के द्वारा विषयावगाहन को सुलभ बनाने के लिए कहीं कहीं एक ही कारिका के पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षों के अंशों को पृथक् उत्थान देकर छपाना पड़ा है । इन उत्थानवाक्यों के विस्तृत अंश को इसलिए संक्षिप्त किया है कि-जिससे व्यर्थका संभार भी न बढ़े और आवश्यक भाग भी न छूटे। प्रमाणसंग्रह की एक मात्र प्रति पाटन के भंडार में मिली । यह नितान्त अशुद्ध है। इसमें जो कारिकांश गद्यभाग में प्रतीक रूप से शामिल थे, उन्हें पृथक् करके कारिका के रूप में [ ] इस ब्रेकिट में छपायां है । प्रमाणसंग्रह ग्रन्थ पर सिद्धिविनिश्चयटीका के उल्लेखानुसार एक 'प्रमाणसंग्रहालंकार या प्रमाणसंग्रहभाष्य' नाम की टीका का पता तो चलता है; पर वह न जाने किस भंडार में कीटकों का भोजन बनकर शास्त्रभक्तों की हास्यास्पद शास्त्रभक्ति का उदाहरण बन अपना जीवन निःशेष कर रही होगी। यद्यपि इसके विषयों का सामान्य विभाजन कर अपनी ओर से उत्थानवाक्य देने का पहिले विचार किया था; पर यह सोचकर कि-'जब लघीयस्त्रय और न्यायविनिश्चयमें प्राचीन टीकाकारों के ही उत्थानवाक्य दिए हैं तब इसमें अपनी ओर से अभी कुछ न लिखकर जैसा का तैसा मूलग्रन्थ ही प्रकाशित करना समुचित होगा' अपनी ओर से उत्थानवाक्य देने की इच्छा को विषयसूची में ही सीमित कर दिया और प्रमाणसंग्रह को बिना किसी उत्थानवाक्य के मूलमात्र ही छपाया है। लघीयस्त्रय में आए हुए अवतरणवाक्यों को इटालिक टाइप में " " डबल इनवर्टेड कामा में तथा प्रमाणसंग्रह के अवतरणवाक्यों को चालूटाइप में ही डवल इनवर्टेड कामा में छपाया है। सब ग्रन्थों में कारिकाओं का टाइप चालू टाइप से बड़ा रखा है। टिप्पण-टिप्पण लिखते समय पहिले तो यह विचार कर लिखना शुरू किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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