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________________ अकलङ्कग्रन्थत्रय 'अकलङ्क ग्रन्थ त्रय' को एक साथ प्रकाशित किया जाय और इनका सम्पादन मैं करूँ।' मेरा अभी तक यही ख्याल था कि जिस प्रकार जैनतर्कभाषा प्रमाणमीमांसा आदि का कार्य हम लोग पंडितजी के सम्पादकत्व में आंशिक भार को उठा कर करते आए हैं उसी तरह प्रमाणसंग्रहादि का कार्य भी इसी संभूयकारिता में ही निष्पन्न होगा । पंडितजी का क्षीणशरीर पर अद्भुत पुष्टमनोगति एवं समुचित व्यवस्थाप्रणाली का ध्यान करके तो मुझे ऐसा लगा कि-पंडित जी क्यों मेरे ही ऊपर यह भार डाल रहे हैं ? क्या अब पंडितजी सचमुच सन्मतितर्क की कार्यसमाप्तिकाल की भांति फिर लम्बा विश्राम करना चाहते हैं ? पर मेरी ये आशंकाएँ प्रमाणमीमांसा के अवशिष्ट कार्य के भार का विचार आते ही विलीन हो गईं । वस्तुत: उस समय मीमांसा का कार्य इतना बाकी पड़ा था कि उसके निबटते निबटते ही करीब १॥ साल का समय लग गया । __पंडितजी के इस स्नेहल आश्वासन के बीच कि-'भाई, जिम्मेवारी तुम्हारी है कार्य तो हमे लोगों का एक दूसरे की पूर्ण मदद से चलेगा ही' मैंने इसका सम्पादन भार बड़े उत्साह से ले लिया; क्योंकि उनके साथ ३-४ वर्षों के प्रत्यक्षकार्यानुभव से मैं यह समझता ही था कि-पंडितजी के इतने का कहने अर्थ है-संपादन की रूपरेखा, योजना एवं व्यवस्था के निदर्शन का बौद्धिक भार लेना । इस तरह पूर्ण साधनों तथा आश्वस्तवातावरण के बीच इसका सम्पादन चालू किया गया। उसका फलद्रूप यह संस्करण है। ___ इस संस्करण में मुद्रित स्वोपज्ञविवृत्तिसहित लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय तथा प्रमाणसंग्रह ये तीनों ग्रन्थ सर्वप्रथम ही प्रकाशित हो रहे हैं। सिर्फ इतः पूर्व लघीयस्त्रय की मूलकारिकाएँ अभयनन्दि की वृत्ति के साथ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित हुई हैं । २. संस्करण परिचय प्रस्तुत संस्करण में प्रस्तावना के अतिरिक्त तीन स्थूल विभाग हैं-१ मूलग्रन्थ, २ टिप्पण, ३ परिशिष्ट । इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है मूलग्रन्थ-मूलग्रन्थों में सर्वप्रथम लघीयस्त्रय ततः न्यायविनिश्चय फिर प्रमाणसंग्रह का मुद्रण हुआ है । इस क्रम में ग्रन्थों की रचनाकाल के इतिहास का आधार लिया है । रचनाशैली तथा विचारों की प्रौढ़ता का ध्यान से निरीक्षण करने पर मालूम होता है कि प्रस्तुतग्रन्थत्रय में लघीयस्त्रय ही अकलंकदेव की आवकृति है तथा प्रमाणसंग्रह अन्तिम । लघीयस्त्रय खोपज्ञविवृति सहित मुद्रित कराया है। प्रभाचन्द्राचार्य ने इसके उपर १८ हजार श्लोक प्रमाण 'न्यायकुमुदचन्द्र' नाम की बृहत्काय टीका लिखी है । वह इतनी विस्तृत एवं शास्त्रार्थबहुल है कि उसमें से मूल कारिकाओं एवं विवृति को ढूँड़ निकालना अत्यन्त कठिन है । फिर अभी तो उसके मात्र दो परिच्छेद ही मुद्रित हुए हैं, जिनमें सिर्फ ९ कारिकाओं की ही विवृति आती है। अत: अकलंक के हार्द को जानने के लिए यह आवश्यक हुआ कि इसका अखण्ड रूप से पृथक् मुद्रण हो । इन्हीं ग्रन्थों के शाब्दिक एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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