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________________ सम्पादकीय वक्तव्य १. सम्पादन गाथा सन् १९३५ के अप्रैल माह में मैंने सिद्धिविनिश्चयटीका के पारायण के लिए उसकी एक कापी करना प्रारम्भ किया। उसमें कई जगह 'प्रमाणसंग्रह' ग्रन्थ का नाम देखकर अकलङ्ककृत प्रमाणसंग्रह के खोज करने की इच्छा हुई । जुलाई १९३५ में मान्यवर पंडित सुखलालजी जब ग्रीष्मावकाश के बाद काशी आए तो मैंने प्रमाणसंग्रह ग्रन्थ की चरचा उनसे की। पंडितजी जहां कहीं शास्त्रभण्डार देखने की सुविधा पाते हैं बड़ी सूक्ष्मता से उसका निरीक्षण कर अतिमहत्त्व के ग्रन्थों को अपनी यादी में लिखवा लेते हैं । उन्होंने जब अपनी नोटबुक के पन्ने उलटवाये तो सचमुच पाटन के भंडार के चुने हुये ग्रन्थों में प्रमाणसंग्रह ग्रन्थ का नाम दर्ज था। अभी यह निश्चितरूप से मालूम नहीं हुआ था कि यह हमारा इष्ट प्रमाणसंग्रह है या अन्य कोई ।। पंडितजी ने सहज शास्त्ररसिक श्री मुनि पुण्यविजयजी को पत्र लिखा । उनका यह उत्तर पाकर कि 'उक्त प्रमाणसंग्रह अकलंककर्तृक है तथा उसकी कापी भिजवाएँगे' हम लोग आनन्दविभोर हो गये, और मार्च १९३६ में उनके द्वारा भिजवाई गई फलन्मनोरथरूप कापी को पाकर तो सचमुच नाच ही उठे। पंडितजी ने इसकी सूचना और संक्षिप्त परिचय उसी समय 'वीर, जैनदर्शन तथा जैनसिद्धान्तभास्कर' आदि पत्रों में भिजवा दिया था। प्रमाणसंग्रह ग्रन्थ को २-४ बार बांच जाने पर भी मुझे सन्तोष न हुआ; अतः उसके अक्षरश: वाचननिमित्त मैंने उसकी एक कापी की । समस्त दर्शनशास्त्रों में भारतीय रूप से अखण्डश्रद्ध पंडितजी ने इस प्रकरण के साथ ही साथ अकलङ्क के स्वोपज्ञविवृतियुक्त लघीयस्त्रय को जो उस समय उपलब्ध था, एकही संग्रह में प्रकाशित करने की योजना बनाई और उसे सिंघी सीरिज के सम्पादक अपने पंडितरूप समशीलसखा मुनि जिनविजयजी से कही । मुनिजी ने कलाप्रिय बाबू बहादुरसिंहजी सिंघी के सद्विचारानुसार संचालित और परिपोषित सिंघी सीरिज में इन्हें प्रकाशित करना स्वीकार करके बाबूजी के साहित्यिक-असाम्प्रदायिकभाव को कार्यरूप में परिणत किया। पंडित सुखलालजी की योजनाएँ वस्तुतः गहरी अर्थभरी तथा बेजोड़ होती हैं। उन्होंने जब तक न्यायकुमुदचन्द्र का कार्य चलता रहा तब तक मुझसे इसकी चरचा ही नहीं की कि-मुझे इनका सम्पादन करना है । नवम्बर १९३७ में जब न्यायकुमुद का कार्य किनारे लगा तब एक दिन टहलते समय उन्होंने अपनी चिरपोषित योजना बताई कि-'प्रमाणसंग्रह और लघीयस्त्रय के साथ ही साथ न्यायविनिश्चयमूल को भी मिलाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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