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________________ १२ अकलङ्कप्रन्थत्रय मेरी समझ में अन्य समर्थ प्रमाणों के अभाव में वही विचार आन्तरिक यथार्थ तुलना मूलक होने से सत्य के विशेष निकट है । समयविचार में सम्पादक ने जो सूक्ष्म और विस्तृत तुलना की है वह तत्त्वज्ञान, तथा इतिहास के रसिकों के लिए बहुमूल्य भोजन है । ग्रन्थ के परिचय में सम्पादक ने उन सभी पदार्थों का हिन्दी में वर्णन किया है जो अकलंकीय प्रस्तुत ग्रन्थत्रय में ग्रथित हैं। यह वर्णन सम्पादक के जैन और जैनेतर शास्त्रों के आकंठ पान का उद्गार मात्र है । सम्पादक की दृष्टि यह है कि-जो अभ्यासी जैन प्रमाणशास्त्र में आने वाले पदार्थों को उनके असली रूप में हिन्दी भाषा के द्वारा ही अल्पश्रम में जानना चाहें उन्हें वह वर्णन उपयोगी हो। पर उसे साद्यन्त सुन लेने के बाद मेरे ध्यान में तो यह बात आई है कि संस्कृत के द्वारा ही जिन्होंने जैनन्याय-प्रमाण शास्त्र का परिशीलन किया है वैसे जिज्ञासु अध्यापक भी अगर उस वर्णन को पढ़ जायेंगे तो संस्कृत मूलग्रन्थों के द्वारा भी स्पष्ट एवं वास्तविक रूप में अज्ञात, कई प्रमेयों को वे सुज्ञात कर सकेंगे। उदाहरणार्थ कुछ प्रमेयों का निर्देश भी कर देता हूँ-प्रमाणसम्प्लव, द्रव्य और सन्तान की तुलना आदि । सर्वज्ञत्व भी उनमें से एक है, जिसके बारे में सम्पादक ने ऐसा ऐतिहासिक प्रकाश डाला है जो सभी दार्शनिकों के लिए ज्ञातव्य है । विशेषज्ञों के ध्यान में यह बात बिना आए नहीं रह सकती कि-कम से कम जैन-न्याय-प्रमाण के विद्यार्थियों के वास्ते तो सभी जैन संस्थाओं में यह हिन्दी विभाग वाचनीय रूप से अवश्य सिफारिश करने योग्य है। __ प्रस्तुत ग्रन्थ उस प्रमाणमीमांसा की एक तरह से पूर्ति ही करता है जो थोड़े ही दिनों पहले सिंघी जैन सिरीज़ में प्रकाशित हुई है। प्रमाणमीमांसा के हिन्दी टिप्पणों में तथा प्रस्तावना में नहीं आए ऐसे प्रमेयों का भी प्रस्तुत ग्रन्थ के हिन्दी वर्णन में समावेश है, और उसमें आए हुए अनेक पदार्थों का सिर्फ दूसरी भाषा तथा शैली में ही नहीं बल्कि दूसरी दृष्टि, तथा दूसरी सामग्री के साथ समावेश है । अत एव कोई भी जैनतत्त्वज्ञान का एवं न्याय-प्रमाणशास्त्र का गभीर अभ्यासी सिंघी जैन सिरीज़ के इन दोनों ग्रन्थों से बहुत कुछ जान सकेगा। • प्रसंगवश मैं अपने पूर्व लेख की सुधारणा भी कर लेता हूँ। मैंने अपने पहले लेखों में अनेकान्त की व्याप्ति बतलाते हुए यह भाव सूचित किया है कि-प्रधानतया अनेकान्त तात्त्विक प्रमेयों की ही चर्चा करता है । अलवत्ता उस समय मेरा वह भाव तर्कप्रधान ग्रन्थों को लेकर ही था। पर इसके स्थान में यह कहना अधिक उपयुक्त है कि-तर्कयुग में अनेकान्त की विचारणा भले ही प्रधानतया तात्त्विक प्रमेयों को लेकर हुई हो फिर भी अनेकान्तदृष्टि का उपयोग तो आचार के प्रदेश में आगमों में उतना ही हुआ है जितना कि तत्त्वज्ञान के प्रदेश में । तर्कयुगीन साहित्य में भी ऐसे अनेक ग्रन्थ बने हैं जिन में प्रधानतया आचार के विषयों को लेकर ही अनेकान्तदृष्टि का उपयोग हुआ है । अतएव समुच्चय रूप से यही कहना चाहिए कि अनेकान्तदृष्टि आचार और विचार के प्रदेश में एकसी लागू की गई है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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