SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राक्कथन ११ थी। इस बारे में मेरा असंदिग्ध निर्णय यह है कि - तत्त्वार्थसूत्र के ऊपर या उसकी किसी व्याख्या के ऊपर स्वामी समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा के अतिरिक्त कुछ भी लिखा ही नहीं है । यह कभी संभव नहीं कि समन्तभद्र की ऐसी विशिष्ट कृति का एक भी उल्लेख या अवतरण अकलंक और विद्यानन्द जैसे उनके पदानुवर्ती अपनी कृतियों में बिना किए रह सकें। बेशक अकलंक का राजवार्तिक गुण और विस्तार की दृष्टिसे ऐसा है जिसे कोई भाष्य ही नहीं महाभाष्य भी कह सकता है । श्वेताम्बर परंपरा में गन्धहस्ती की वृत्ति जब गंधहस्तिमहाभाष्य नाम से प्रसिद्ध हुई तब करीब गन्धहस्ती के ही समानकालीन अकलंक की उसी तत्त्वार्थ पर बनी हुई विशिष्ट व्याख्या अगर दिगम्बर परम्परा में गन्धहस्तिभाष्य या गन्धहस्ति महाभाष्य रूपसे प्रसिद्ध या व्यवहृत होने लगे तो यह क्रम दोनों फिरकों की साहित्यिक परम्परा के अनुकूल ही है । परन्तु हम राजवार्तिक के विषय में गन्धहस्ति - महाभाष्य विशेषण का उल्लेख कहीं नहीं पाते । तेरहवीं शताब्दी के बाद ऐसा विरल उल्लेख मिलता है जो समन्तभद्र के गन्धहस्तिभाष्य का सूचन करता हो । मेरी दृष्टि में पीछे ऐसे सब उल्लेख निराधार और किंवदन्तीमूलक हैं । तथ्य यह ही हो सकता है कि अगर तत्त्वार्थ- महाभाष्य या तत्त्वार्थ- गन्धहस्ति-महाभाष्य नाम का दिगम्बर साहित्य में मेल बैठाना हो तो वह अकलंकी राजवार्तिक के साथ ही बैठ सकता है । $ 8 ६. प्रस्तुत संस्करण प्रस्तुत पुस्तक में कलंकीय तीन मौलिक कृतियाँ एक साथ सर्वप्रथम सम्पादित हुई हैं । इन कृतियों के संबन्ध में तात्त्विक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से जितना साधन उपलब्ध है उसे विद्वान् सम्पादक ने टिप्पण तथा अनेक उपयोगी परिशिष्टों के द्वारा प्रस्तुत पुस्तक • में सन्निविष्ट किया है । जो जैन, बौद्ध और ब्राह्मण, सभी परंपरा के विद्वानों के लिए मात्र उपयोगी ही नहीं बल्कि मार्गदर्शक भी है। बेशक अकलंक की प्रस्तुत कृतियाँ अभी तक किसी पाठ्यक्रम में नहीं हैं तथापि उनका महत्त्व और उपयोगित्व दूसरी दृष्टि से और भी अधिक है । 1 * अकलंकग्रन्थत्रय के सम्पादक पं० महेन्द्रकुमार जी के साथ मेरा परिचय छह साल का है । इतना ही नहीं बल्कि इतने अरसे के दार्शनिक चिन्तन के अखाड़े में हम लोग समशील साधक हैं । इससे मैं पूरा ताटस्थ्य रखकर भी निःसंकोच कह सकता हूँ कि पं० महेन्द्रकुमार जी का विद्याव्यायाम कम से कम जैन परंपरा के लिए तो सत्कारास्पद ही नहीं अनुकरणीय भी है । प्रस्तुत ग्रन्थ का बहुश्रुत सम्पादन उक्त कथन का साक्षी है । प्रस्तावना में विद्वान् सम्पादक ने अकलंकदेव के समय के बारे में जो विचार प्रकट किया है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy