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अकलङ्कग्रन्थत्रय
सेन तथा समन्तभद्र के द्वारा परिष्कृत हुआ ही था, फिर भी प्रबल दर्शनान्तरों के विकसित विचारों के साथ प्राचीन जैन निरूपण का तार्किक शैली में मेल बिठाने का काम जैसा तैप्ता न था जो कि अकलंक ने किया। यही सबब है कि अकलंक की मौलिक कृतियाँ बहुत ही संक्षिप्त हैं, फिर भी वे इतनी अर्थघन तथा सुविचारित हैं कि आगे के जैन न्याय का वे आधार बन गई हैं।
यह भी संभव है कि भट्टारक अकलंक क्षमाश्रमण जिनभद्रकी महत्त्वपूर्ण कृतियों से परिचित होंगे। प्रत्येक मुद्दे पर अनेकान्त दृष्टि का उपयोग करने की राजबार्तिकगत व्यापक शैली ठीक वैसी ही है जैसी विशेषावश्यक भाष्य में प्रत्येक चची में अनेकान्त दृष्टि लागू करने की शैली व्यापक है । ४ अकलंक और हरिभद्र आदि
तत्त्वार्थभाष्य के वृत्तिकार सिद्धसेन गणि जो गन्धहस्तीरूपसे सुनिश्चित हैं, उनके और याकिनीसूनु हरिभद्र के समकालीनत्व के सम्बन्ध में मैं अपनी संभावना तत्त्वार्थ के हिन्दी विवेचन के परिचय में बतला चुका हूँ। हरिभद्र की कृतियों में अभी तक ऐसा कोई उल्लेख नहीं पाया गया जो निर्विवादरूपसे हरिभद्र के द्वारा अकलंक की कृतियों के अवगाहन का सूचक हो। सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति में पाया जानेवाला सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख अगर अकलंक के सिद्धिविनिश्चय का ही बोधक हो तो यह मानना पड़ेगा कि गन्धहस्ती सिद्धसेन कमसे कम अकलंक के सिद्धिविनिश्चय से तो परिचित थे ही। हरिभद्र और गन्धहस्ती अकलंक की कृतियों से परिचित हों या नहीं फिर भी अधिक संभावना इस बातकी है कि अकलङ्क और गन्धहस्ती तथा हरिभद्र ये अपने दीर्घ जीवन में थोड़े समय तक भी समकालीन रहे होंगे। अगर यह संभावना ठीक हो तो विक्रम की आठवीं और नववीं शताब्दी का अमुक समय अकलङ्क का जीवन तथा कार्यकाल होना चाहिए।
मेरी धारणा है कि विद्यानन्द और अनन्तवीर्य जो अकलङ्क की कृतियों के सर्व प्रथम व्याख्याकार हैं वे अकलङ्क के साक्षात् विद्याशिष्य नहीं तो अनन्तरवर्ती अवश्य हैं; क्योंकि इनके पहिले अकलङ्क की कृतियों के ऊपर किसी के व्याख्यान का पता नहीं चलता। इस धारणा के अनुसार दोनों व्याख्याकारों का कार्यकाल विक्रम की नववीं शताब्दी का उत्तरार्ध तो अवश्य होना चाहिए, जो अभी तक के उनके ग्रन्थों के आन्तरिक अवलोकन के साथ मेल खाता है।
५ गन्धहस्तिभाष्य
दिगम्बर परम्परा में समन्तभद्र के गन्धहस्ति महाभाष्य होने की चर्चा कभी चल पड़ी
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