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________________ प्राक्कथन अधिक संभव तो यह है कि समन्तभद्र और अकलंक के बीच साक्षात् विद्या का संबन्ध हो; क्योंकि समन्तभद्र की कृति के ऊपर सर्वप्रथम अकलंक की ही व्याख्या है । यह हो नहीं सकता कि अनेकान्तदृष्टि को असाधारण रूप से स्पष्ट करनेवाली समन्तभद्र की विविध कृतियों में अतिविस्तार से और आकर्षक रूप से प्रतिपादित सप्तभंगियों को तत्त्वार्थ की व्याख्या में अकलंक तो सर्वथा अपनावें, जब कि पूज्यपाद अपनी व्याख्या में उसे छुएँ तक नहीं। यह भी संभव है कि-शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह-गत पात्रस्वामी शब्द स्वामी समन्तभद्र का ही सूचक हो । कुछ भी हो पर इतना निश्चित है कि श्वेताम्बर परंपरा में सिद्धसेन के बाद तुरन्त जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हुए और दिगम्बर परंपरा में स्वामी समन्तभद्र के बाद तुरन्त ही अकलंक आए । ३. जिनभद्र और अकलंक यद्यपि श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों परंपरा में संस्कृत की प्रतिष्ठा बढ़ती चली । फिर भी दोनों में एक अन्तर स्पष्ट देखा जाता है, वह यह कि-दिगम्बर परंपरा संस्कृत की ओर झुकने के बाद दार्शनिक क्षेत्र में अपने आचार्यों को केवल संस्कृत में ही लिखने को प्रवृत्त करती है जब कि श्वेताम्बर परंपरा अपने विद्वानों को उसी विषय में प्राकृत रचनाएँ करने को भी प्रवृत्त करती है। यही कारण है कि श्वेताम्बरीय साहित्य में सिद्धसेन से यशोविजयजी तक की दार्शनिक चिन्तनवाली प्राकृत कृतियाँ भी मिलती हैं। जब कि दिगम्बरीय साहित्य में मात्र संस्कृतनिबद्व ही वैसी कृतियाँ मिलती हैं। श्वेताम्बर परंपरा का संस्कृतयुग में भी प्राकृत भाषा के साथ जो निकट और गंभीर परिचय रहा है, वह दिगम्बरीय साहित्य में विरल होता गया है । क्षमाश्रमण जिनभद्र ने अपनी प्रधान कृतियाँ प्राकृत में रची जो तर्कशैली की होकर भी आगमिक ही हैं। भट्टारक अकलंक ने अपनी विशाल और अनुपम कृति राजवार्त्तिक संस्कृत में लिखी, जो विशेषावश्यक भाष्य की तरह तर्कशैली की होकर भी आगमिक ही है। परन्तु जिनभद्र की कृतियों में ऐसी कोई स्वतन्त्र संस्कृत कृति नहीं है जैसी अकलंक की है । अकलंक ने आगमिक ग्रन्थ राजवार्तिक लिखकर दिगम्बर साहित्य में एक प्रकार से विशेषावश्यक के स्थान की पूर्ति तो की, पर उनका ध्यान शीघ्र ही ऐसे प्रश्न पर गया जो जैन-परंपरा के सामने जोरों से उपस्थित था । बौद्ध और ब्राह्मण प्रमाणशास्त्रों की कक्षा में खड़ा रह सके ऐसा न्याय-प्रमाण की समग्र व्यवस्थावाला कोई जैन प्रमाण-ग्रन्थ आवश्यक था। अकलंक, जिनभद्र की तरह पाँच ज्ञान, नय आदि आगमिक वस्तुओं की केवल तार्किक चर्चा करके ही चुप न रहे, उन्होंने उसी पञ्चज्ञान, सप्तनय आदि आगमिक वस्तु का न्याय और प्रमाण-शास्त्ररूप से ऐसा विभाजन किया, ऐसा लक्षण प्रणयन किया, जिससे जैन न्याय और प्रमाण ग्रन्थों के स्वतन्त्र प्रकरणों की माँग पूरी हुई । उनके सामने वस्तु तो आगमिक थी ही, दृष्टि और तर्क का मार्ग भी सिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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