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अकलङ्कप्रन्थत्रय
६-श्वेताम्बरीय-दिगम्बरीय दोनों प्राचीन कृतियों की व्याख्याओं में तथा निजी मौलिक कृतियों में नव्यन्याय की परिष्कृत शैली का संचार, तथा उसी शैली की अपरिमित कल्पनाओं के द्वारा पुराने ही जैन-तत्त्वज्ञान तथा आचार सम्बन्धी पदार्थों का अभूतपूर्व विशदीकरण, जैसे उपाध्याय यशोविजयजी की कृतियाँ ।
उपर्युक्त प्रकार से जैन-साहित्य का विकास व परिवर्द्धन हुआ है, फिर भी उस प्रबल तर्कयुग में कुछ जैन पदार्थ ऐसे ही रहे हैं जैसे वे प्राकृत तथा आगमिक युग में रहे । उनपर तर्क-शैली या दर्शनान्तरीय चिन्तन का कोई प्रभाव आजतक नहीं पड़ा है । उदाहरणार्थ-सम्पूर्ण कर्मशास्त्र, गुणस्थानविचार, षड्द्रव्यविचारणा, खासकर लोक तथा जीवविभाग आदि । सारांश यह है कि संस्कृत भाषा की विशेष उपासना, तथा दार्शनिक ग्रन्थों के विशेष परिशीलन के द्वारा जैन आचार्यों ने जैन तत्त्वचिन्तन में जो और जितना विकास किया है, वह सब मुख्यतया ज्ञान और तत्सम्बन्धी. नय, अनेकान्त आदि पदार्थों के विषय में ही किया है। दूसरे प्रमेयों में जो कुछ नयी चर्चा हुई भी है वह बहुत ही थोड़ी है और प्रासंगिक मात्र है। न्याय-वैशेषिक, सांख्य-मीमांसक, बौद्ध आदि दर्शनों के प्रमाणशास्त्रों का अवगाहन जैसे जैसे जैनपरम्परा में बढ़ता गया वैसे वैसे जैन आचार्यों की मिजी प्रमाणशास्त्र रचनेकी चिन्ता भी तीव्र होती चली और इसी चिन्ता में से पुरातन पंचविध ज्ञानविभाग की भूमिका के उपर नये प्रमाणशास्त्र का महल खड़ा हुआ । १२. सिद्धसेन और समन्तभद्र
- जैन परम्परा में तर्कयुग की या न्याय-प्रमाण-विचारणा की नींव डालने वाले येही दो आचार्य हैं । इनमें से कौन पहले या कौन पीछे है इत्यादि अभी सुनिश्चित नहीं है । फिर भी इसमें तो सन्देह ही नहीं है कि उक्त दोनों आचार्य ईसा की पाँचवीं शताब्दी के अनन्तर ही हुए हैं। नये साधनों के आधार पर सिद्धसेन दिवाकर का समय छठी शताब्दी का अन्त भी संभवित है। जो कुछ हो पर स्वामी समन्तभद्र के बारे में अनेकविध ऊहापोह के बाद मुझको अब अतिस्पष्ट हो गया है कि-वे 'पूज्यपाद देवनन्दी' के पूर्व तो हुए ही नहीं । 'पूज्यपाद के द्वारा स्तुत प्राप्त के समर्थन में ही उन्होंने आप्तमीमांसा लिखी है' यह बात विद्यानन्द ने आप्तपरीक्षा तथा अष्टसहस्री में सर्वथा स्पष्टरूप से लिखी है । स्वामी समन्तभद्र की सब कृतियों की भाषा, उनमें प्रतिपादित दर्शनान्तरीय मत, उनकी युक्तियाँ, उनके निरूपण का ढंग और उनमें विद्यमान विचारविकास, यह सब वस्तु पूज्यपाद के पहले तो जैन परंपरा में न आई है न आने का संभव ही था। जो दिग्नाग, भर्तृहरि, कुमारिल और धर्मकीर्ति के ग्रन्थों के साथ समन्तभद्र की कृतियों की बाह्यान्तर तुलना करेगा और जैन संस्कृत साहित्य के विकासक्रम की ओर ध्यान देगा वह मेरा उपर्युक्त विचार बड़ी सरलता से समझ लेगा।
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