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________________ प्राक्कथन Jain Education International क १. प्राकृतयुग और संस्कृतयुग का अन्तर I जैन परम्परा में प्राकृतयुग वह है जिसमें एकमात्र प्राकृत भाषाओं में ही साहित्य रचने की प्रवृत्ति थी । संस्कृतयुग वह है जिसमें संस्कृत भाषा में भी साहित्यनिर्माण की प्रवृत्ति व प्रतिष्ठा स्थिर हुई । प्राकृतयुग के साहित्य को देखने से यह तो स्पष्ट जान पड़ता है कि उस समय भी जैन विद्वान् संस्कृत भाषासे, तथा संस्कृत दार्शनिक साहित्य से परिचित अवश्य थे । फिर भी संस्कृतयुग में संस्कृत भाषा में ही शास्त्र रचने की ओर झुकाव होने के कारण यह अनिवार्य था कि संस्कृत भाषा, तथा दार्शनिक साहित्य का अनुशीलन अधिक गहरा तथा अधिक व्यापक हो । वाचक उमास्वाति के पहले की इमें स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता । फिर भी संभव है उनके पहले भी वैसी कोई रचना जैन - साहित्य में हुई हो । कुछ भी हो संस्कृत - जैन- साहित्य नीचे लिखी क्रमिक भूमिकाओं में विकसित तथा पुष्ट हुआ जान पड़ता है । संस्कृत - जैन- रचना का १-तत्त्वज्ञान तथा प्रचार के पदार्थों का सिर्फ प्रागमिक शैली में संस्कृत भाषा में रूपान्तर, जैसे कि तत्त्वार्थभाष्य, प्रशमरति आदि । २ - उसी शैली के संस्कृत रूपान्तर में कुछ दार्शनिक छाया का प्रवेश, जैसे सर्वार्थसिद्धि । ३ - इने गिने प्रागमिक पदार्थ (खासकर ज्ञानसंबन्धी) को लेकर उसपर मुख्यतया तार्किकदृष्टि से अनेकान्तवाद की ही स्थापना, जैसे समन्तभद्र और सिद्धसेन की कृतियाँ । ४ - ज्ञान और तत्संबन्धी आगमिक पदार्थों का दर्शनान्तरीय प्रमाण शास्त्र की तरह तर्कबद्ध शास्त्रीकरण, तथा दर्शनान्तरीय चिन्तनों का जैन वाङ्मय में अधिकाधिक संगतीकरण, जैसे अकलंक और हरिभद्र आदि की कृतियाँ । ५ - पूर्वाचार्यों की तथा निजी कृतियों के ऊपर विस्तृत - विस्तृतर टीकाएँ लिखना और उनमें दार्शनिक वादों का अधिकाधिक समावेश करना, जैसे विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, वादिदेव आदि की कृतियाँ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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