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________________ ६ अकलङ्कग्रन्थत्रय हैं जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों संप्रदायों में मिलते हैं और जिनके कर्ता भिन्न भिन्न हैं । इसी तरह बौद्ध और ब्राह्मण मत के साहित्य में भी ऐसे समनामक कई ग्रन्थ मिलते हैं । केवल ग्रन्थ ही नहीं, कई समनामक विद्वान् भी हमारे भूतकाल के इतिहास में, भिन्न भिन्न सम्प्रदायों में और भिन्न भिन्न काल में हो चुके हैं, जिनका समयादि निश्चिततया ज्ञात न हो सकने के कारण हमारे इतिहास की गुत्थियाँ बड़ी जटिल हो रहीं हैं। अगर किसी शास्त्रकार के विषय में कोई समयसूचक निर्देश मिल जाता है तो वह भी ठीक है या नहीं इसकी पूरी मीमांसा की अपेक्षा रखता है। समय सूचक संवत्सर भी, यदि उसके साथ किसी खास विशिष्ट नामका उल्लेख नहीं किया हुआ हो तो, विचारणीय होता है कि वह कौन संवत् है - शक है, विक्रम है, गुप्त है, हर्ष है या वैसा कोई और है। हमारे देश के पुराने लेखों में ऐसे कई संवतों का विधान किया हुआ मिलता है जिनका अभी कुछ पता नहीं चला है । जिन संवतों का प्रारंभ हम एक तरह निश्चितता के साथ अमुक काल में हुआ मानते हैं, उनके बारे में भी कितनी ही ऐसी नई नई समस्याऐं उपस्थित होती रहती हैं, जो मानी हुई निश्चितता को शंकाशील बना देती हैं । इसलिये हमारे इन इतिहास की पहेलियों का ठीक ठीक वास्तविक उत्तर ढूंड़ निकालना बड़ा कठिन कार्य है । इसमें कोई शक नहीं है कि इसके लिये बहुत अन्वेषण, बहुत संशोधन, बहुत परिशीलन, और बहुत आलोचन - प्रत्यालोचन की आवश्यकता है । किसी प्रकार के अभिनिवेश से रहित होकर, केवल सत्य के शुद्ध स्वरूप को जानने की इच्छा से प्रेरित होकर, जो विद्वान् इस मार्ग में प्रवृत्त होते हैं वे ही अपना अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करने में समर्थ होते हैं, दूसरे तो भ्रम की भूलभुलैया में आजीवन भटकते रहते हैं और अन्त तक प्रगति के मार्ग से पराङ्मुख बने रहते हैं । न उनको आगे बढ़ने का कोई रास्ता मिलता है और न वे आगे बढ सकते हैं । इतिहास और तत्त्वज्ञान विषयक इन जटिल समस्याओं का, निरभिनिवेशता के साथ आलोचन - प्रत्यालोचन करना और तद्द्वारा सम्यग्ज्ञान का यथाशक्ति प्रकाश और प्रसार करना, यही एक प्रधान नीति, सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित किये जानेवाले ग्रन्थों के संपादनकार्य में रखी गई है। और उसी नीति के आदर्शानुसार ये ग्रन्थरत्न सुयोग्य संपादक विद्वानों द्वारा संपादित और परिष्कृत होकर प्रसिद्ध हो रहे हैं । ग्रन्थमाला के संचालन में, इस प्रकार अपने इन सुहृद् मित्रों का जो हमें सहयोग प्राप्त हो रहा है उसके लिये हम इनके पूर्ण कृतज्ञ हैं । श्रावणशुक्ला पंचमी संवत् १९९६ बंबई Jain Education International For Private & Personal Use Only जिनविजय www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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