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________________ प्रास्ताविक इस सम्बन्ध के जो अन्य विचार हैं उन पर हमने अभी तक कोई विशेष विचार नहीं किया। निशीथचूर्णि में जिस सिद्धिविनिश्चय नामक ग्रन्थ का निर्देश है वह अकलंककृत ही है या किसी अन्यकृत है इसका विशेष विचार आवश्यक है। सम्प्रदाय भेद के कारण एकही नामके दो दो ग्रन्थ रचे जाने के उदाहरणों का हमारे साहित्य में अभाव नहीं है। सिद्धपाहुड, समयसार, नयचक्र, धर्मपरीक्षा आदि ऐसे अनेक समनामक ग्रन्थ तापूर्वक संशोधन परिचय दिया छपवानेवाले वे ही सुप्रसिद्ध प्रागमोद्धारक आचार्यवर्य श्रीसागरानन्द सूरि हैं, जिनकी ज्ञानोपासना के हम अत्यन्त प्रशंसक है और जिनका शास्त्रव्यासंग जैनसमाज के समग्र साधुवर्ग में सर्वोत्कृष्ट है। सूरिजी महाराज, हरिभद्रसूरि के उस समयनिर्णय के विरुद्ध हैं जो हमने अपने निबन्ध में निश्चित किया है । उसीके संबन्ध में आपका यह मन्तव्य है कि नन्दीचूणि के रचनासमय का जो निर्देश उसकी प्रान्त पंक्तिमें किया गया है वह ठीक नहीं है और इसलिये वह प्रक्षिप्त है। किसी ग्रन्थ में किसी पंक्ति के प्रक्षिप्त होने की बात कोई पाश्चर्यजनक नहीं होती। सैकड़ों ग्रंथों में सैकड़ों पंक्तियाँ प्रक्षिप्त मिलती हैं। लेकिन यह पंक्ति प्रक्षिप्त है या मौलिक है इसका विचार और निर्णय किसी प्रमाण के आधार से ही किया जाता है। बिना अाधार के किया जानेवाला कथन विद्वानों को ग्राह्य नहीं हो सकता। अगर हमें किसी ग्रन्थ में की कोई पंक्ति, उसकी पुरानी हस्तलिखित पोथियों में, भिन्न भिन्न शब्दोंवाली या वाक्याशोंवाली प्राप्त हों, तो हमें जरूर मानना पड़ेगा कि उस पंक्ति की मौलिकता के विषय में कुछ न कुछ गड़बड़ अवश्य है। ऐसे शंकित स्थलों में सत्यान्वेषी विद्वानों का कर्तव्य होता है न पंक्तियों का खुब सत्यतापूर्वक संशोधन और संपादन किया जाय और कहाँ की प्रति में कौन पाठ मिलता है और कौन नहीं मिलता इसका प्रामाणिक परिचय दिया जाय । हो सके तो उसकी फोटो-प्रतिकृति भी प्रकट की जाय। ऐसा करनेसे हमारा कथन और मन्तव्य सत्य का अधिक समर्थन करनेवाला होता है और हमारी प्रामाणिकता बढ़ती है। नन्दीचूणि के कर्ता चाहे जिस समय में हुए सिद्ध हों, हमें उसके बारे में यत्किचित् भी कदाग्रह नहीं है, वैसे ही हरिभद्रसूरि के समय का जो निर्धारण हमने किया है उससे अन्यथा ही यदि वह किसी अन्य प्रामाणिक आधारों पर से सिद्ध हो सकता हो तो हम उसको उसी क्षण स्वीकार करने को उद्यत ही नहीं है, बल्कि उत्सुक भी है। हमारे लिये इसमें कोई आग्रह या पूर्वग्रह की बात नहीं है। हमारा आग्रह है प्रामाणिकता का। यदि, सागरानन्दसूरिजी महाराज, नन्दीचूर्णि की ऐसी कोई पुरानी हस्तलिखित प्रति का विश्वसनीय परिचय दें और पता बतायें, कि जिसमें उनको, विवादग्रस्त पंक्ति के पाठांतर मिले हों या उसका सर्वथा अभाव ही दृष्टिगोचर हुअा हो, तो हम अवश्य उनके अनुग्रहीत होंगे और हम अपना भ्रम दूर कर निःशंकित बनेंगे । अन्यथा हमारा यह सन्देह कि 'सूरिजी महाराज ने, साभिप्राय, नन्दीचूर्णि स उल्लेख को नष्ट कर देने का प्रयत्न किया है और वैसा करके अपने एक महान् पूर्वाचार्य की कृति का और उसके साथ ही एक सार्वजनिक ऐतिहासिक तथ्यका अपलाप करने का निन्ध अपराध किया है' दूर नहीं होगा। क्योंकि हमने जितनी प्रतियाँ इस ग्रन्थ की जहाँ कहीं भंडारों में, देखी हैं उन सबमें, यह पंक्ति बराबर लिखी हुई मिली है। खासकर, जबसे सागरानंदसूरिजी की वह मुद्रित प्रति हमारे हाथ में आई तबसे हम इस विषयमें बड़ी सावधानी और बड़ी उत्सुकता के साथ इसका अन्वेषण कर रहे हैं कि कोई एक भी प्रति वैसी मिल जाय जिसमें सूरिजी का मुद्रित किया हा पाठभेद हो, जिससे हम अपनी शंका की निवृत्ति कर सकें और अपने भ्रम का निवारण कर मिथ्यात्व र सकें। अगर इस वक्तव्य में हमारी कुछ धृष्टता मालम दे तो साथ में उसे क्षमा की जाने की प्रार्थना है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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