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________________ अकलङ्कग्रन्थत्रय मालूम देती है । शायद, सबसे पहले हमने ही अपने 'हरिभद्रसूरि का समयनिर्णय' नामक उस पुराने निबन्ध में यह सूचित किया था कि नन्दीचूर्णि के कर्ता जिनदासगणी महत्तर हैं और वे ही निशीथचूर्णि और आवश्यकचूर्णि के कर्ता भी हैं। और नन्दीचूर्णि के प्रान्तोल्लेख से यह भी निर्धारित किया था कि उसकी रचना शक-संवत् ५१८ (वि० सं० ७३३ ) में समाप्त हुई थी। पंडितजी को चूर्णि का रचनाकाल तो मान्य सा लगता है लेकिन कर्ता के विषय में सन्देह है । इसके कर्ता जिनदासगणी ही हैं इसका कोई प्रमाण इन्हें नहीं दिखाई देता । साथ में, भांडारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर के जैन केटलॉग से प्रो० H. R. कापडिया का मत भी प्रदर्शित किया है, जिसमें उन्होंने 'नन्दीचूर्णि के कर्ता जिनदास हैं यह प्रघोषमात्र है' ऐसा कहा है। प्रो० कापडिया ने यह प्रघोषमात्र है, ऐसा कथन किस आधार से किया है इसका हमें कोई ज्ञान नहीं है । लेकिन उस केटलॉग में जो नन्दीचूर्णि का प्रान्त पद्य स्वयं प्रोफेसर महाशय ने उद्धृत किया है उसमें तो, इस चूर्णि के कर्ता 'जिनदास गणि महत्तर' हैं, ऐसा प्रकट विधान किया हुआ मिलता है। यह ठीक है कि नन्दीचूर्णि का यह पद्य गूढ़ है और गूढ़ ही रूप में चूर्णिकार ने अपना नाम निर्देश किया है, जिससे प्रो० कापडिया इस गूढ भाव को समझने में असफल हुए हों। इसका विशेष विस्तार न करके हम सिर्फ यहाँ पर इतना ही सूचित कर देना चाहते हैं कि-इस पद्य का जो प्रथम पाद 'निरेणगामेत्त महासहाजिता' ऐसा लिखा हुआ है वह कुछ भ्रष्टसा है, इसके बदले 'णिरेणणागत्त महासदाजिना' ऐसा पाठ चाहिए । इस पाद में कुल १२ अक्षर हैं और इन बारह अक्षरों को लौटपलट कर क्रम में रखने से 'जिनदासगणिणा महत्तरेण' यह वाक्य निकल आता है। निशीथचूर्णि में भी इन्होंने इसी ढंग से अपना और अपने गुरु आदि का नामोल्लेख किया है । इसलिये नन्दीचूर्णि के भी कर्ता वही जिनदास गणी महत्तर हैं जो निशीथचूर्णि के कर्ता हैं यह निश्चित है ।* __ * प्रसंगवश, हम यहाँ पर इस नन्दीचूणि के रचना समय के विषय में भी कुछ निर्देश कर देना चाहते हैं। जिस तरह पंडित श्री महेन्द्रकुमारजी ने, इसके कर्तत्व के विषय में शंका की है इसी तरह कुछ विद्वान इसके रचनाकाल के विषय में भी वैसे ही शंका करते हैं। जिस तरह प्रो० कापड़िया जैसे उक्त पद्य के मर्म को न समझ कर इसके कर्ता के नाम को 'प्रघोषमात्र' कह देने का साहस करते दिखाई देते हैं, वैसे कुछ विद्वान्, इस चूणि के प्रान्त में जो रचनाकाल निर्देशक पंक्ति है, उसके उतने अंश को प्रक्षिप्त बतला कर, उसका अपलाप करते दिखाई देते हैं। उनका साहस तो इनसे भी बहुत बढ़ कर है। वे इस पंक्तिगत, उस वाक्यांश का अपलाप करके ही नहीं चुप रहते, वे तो अपने छपाये हुए ग्रन्थमें से उतने वाक्यांश को, स्वेच्छापूर्वक निकाल कर बाहर फेंक देने तक का अधिकार रखते हैं और बिना किसी प्रमाण बतलाए कह देना चाहते है कि किसी किसी प्रति में यह पाठ नहीं भी मिलता है और इसलिये यह प्रक्षिप्त है। इत्यादि । नन्दीणि की जो प्रति छपाई गई है उसमें ऐसा ही किया गया नजर आ रहा है। इसके For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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