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________________ प्रास्ताविक श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों संप्रदायों के कुछ ग्रन्थों का समान रूपसे प्रकाशन किया जाता है, तथापि उस ग्रन्थमाला का ध्येय शुद्ध साहित्यिक न होकर उसका ध्येय धार्मिक है। उसके पीछे जो प्रेरणा है वह एक अंश में असांप्रदायिक होकर भी, दूसरे अंश में बहुत कुछ सांप्रदायिक है। वह श्रीमद् राजचन्द्रजी के एक नये अतएव एक तीसरे ही संप्रदाय का प्रभाव, प्रकाश और प्रचार करने की दृष्टि से प्रकट की जाती है। सिंघी जैन ग्रन्थमाला के पीछे ऐसा कोई संकुचित हेतु नहीं है । इसका हेतु विशुद्ध साहित्य-सेवा और ज्ञानज्योति का प्रसार करना है। जैन धर्म के पूर्वकालीन समर्थ विद्वान् अपने समाज और देश में, ज्ञानज्योति का प्रकाश फैलाने के लिये, यथाशक्ति अनेकानेक विषयों के जो छोटे बड़े अनेकानेक ग्रन्थनिबन्धन रूप दीपकों का निर्माण कर गये हैं, लेकिन देश काल की भिन्न परिस्थिति के कारण, अब वे वैसे क्रियाकारी न हो कर निर्वाणोन्मुखसे बन रहे हैं, उन्हीं ज्ञानदीपकों को, इस नवयुगीन-प्रदर्शित नई संशोधनपद्धति से सुपरिमार्जित, सुपरिष्कृत और सुसजित कर, समाज और देश के प्रांगण में प्रस्थापित करना ही इस ग्रंथमाला का एक मात्र ध्येय है। समाज और देश इससे तत्तद् विषयों में उद्दीप्त और उज्ज्वल ज्ञान प्रकाश प्राप्त करे । प्रस्तुत ग्रन्थके संपादक और संपादन कार्य के विषय में पंडितवर श्रीसुखलाल जी ने अपने वक्तव्य में यथेष्ट निर्देश कर दिया है। एक तरह से पंडितजी के परामर्श से ही इस ग्रन्थ का संपादन कार्य हुआ है। संपादक पंडित श्री महेन्द्रकुमार जी अपने विषय के आचार्य हैं और तदुपरान्त खूब परिश्रमशील और अध्ययनरत अध्यापक हैं । आधुनिक अन्वेषणात्मक और तुलनात्मक दृष्टि से विषयों और पदार्थो का परिशीलन करने में यथेष्ट प्रवीण हैं । दार्शनिक, सांप्रदायिक और वैयक्तिक पूर्वग्रहों का पक्षपात न रख कर तत्त्वविचार करने की शैली के अनुगामी हैं । इससे भविष्य में हमें इनसे जैन साहित्य के गंभीर आलोचन-प्रत्यालोचन की अच्छी आशा है । ग्रन्थ के उपोद्घातरूप जो विस्तृत निबन्ध राष्ट्रभाषा में लिखा गया है, उसके अवलोकन से, जिज्ञासुओं को ग्रन्थगत हार्द का अच्छी तरह आकलन हो सकेगा, और . साथ में बहुत से अन्यान्य तात्त्विक विचारों के मनन और चिन्तन की सामग्री भी इसमें उपलब्ध होगी। ग्रन्थकार भट्ट अकलंकदेव के समय के बारे में विद्वानों में कुछ मतभेद चला आ रहा है । इस विषय में पंडितजी ने जो कुछ नये विचार और तर्क उपस्थित किये हैं उन पर तज्ज्ञ विद्वान् यथेष्ट ऊहापोह करें। हम इस विषय में अभी अपना कुछ निर्णायक मत देने में असमर्थ हैं। प्रस्तावना के पृ० १४-१५ पर पंडितजी ने नन्दीचूर्णि के कर्तृत्व के विषय में जो शंका प्रदर्शित की है-वह हमें संशोधनीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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