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अकलङ्कग्रन्थत्रय
इस तरह भट्ट अकलंकदेव ने जैसे समन्तभद्रोपज्ञ आर्हतमतप्रकर्षक पदार्थों का परिस्फोट और विकास किया वैसे ही पुरातन-सिद्धान्त-प्रतिपादित जैन पदार्थों का भी, नई प्रमाण-परिभाषा और तर्कपद्धति से, अर्थोद्घाटन और विचारोबोधन किया । जो कार्य श्वेताम्बर संप्रदाय में जिनभद्रगणी, मल्लवादी, गन्धहस्ती और हरिभद्रसूरि ने किया वही कार्य दिगम्बर संप्रदाय में अनेक अंशों में अकेले भट्ट अकलंकदेव ने किया; और वह भी कहीं अधिक सुंदर और उत्तमरूपसे किया । अत एव इस दृष्टि से भट्ट अकलंकदेव जैन-वाङ्मयाकाश के यथार्थ ही एक बहुत बड़े तेजस्वी नक्षत्र थे। यद्यपि संकुचित विचार के दृष्टिकोण से देखने पर वे संप्रदाय से दिगम्बर दिखाई देते हैं और उस संप्रदाय के जीवन के वे प्रबल बलवर्द्धक और प्राणपोषक आचार्य प्रतीत होते हैं; तथापि उदार दृष्टि से उनके जीवनकार्य का सिंहावलोकन करने पर, वे समग्र आहेतदर्शन के प्रखर प्रतिष्ठापक और प्रचण्ड प्रचारक विदित होते हैं । अतएव समुच्चय जैनसंघ के लिये वे परम पूजनीय और परम श्रद्वय मानने योग्य युगप्रधान पुरुष हैं ।
सिंघी जैन ग्रन्थमाला में, इस प्रकार इनकी कृतियों का यह संगुम्फन, माला के गौरव के सौरभ की समृद्धि का बतानेवाला और ज्ञानमधु-लोलुप विद्वद्-भ्रमरगण को अपनी तरफ अधिक आकृष्ट करनेवाला होगा । ग्रन्थमाला के प्रतिष्ठाता श्रीमान् सिंघीजी, यद्यपि संप्रदाय की दृष्टिसे श्वेताम्बर समाज के एक प्रधान अग्रणी और जातिनेता पुरुष हैं; तथापि अपने उच्च संस्कार और उदार स्वभाव के कारण ये सांप्रदायिक क्षुद्रता से सर्वथा परे हैं । जैन समाजके व्यापक गौरव का, ये सांप्रदायिकता के रंगीन और विरूपदर्शी चशमे पहन कर उच्चावच्च अवलोकन नहीं करते। समुच्चय जैन साहित्यगत सुन्दर सुन्दर ग्रन्थरत्नों का, भेदभाव-निरपेक्ष, सुसंस्कृत रीति से समुद्धार करना और तद्द्वारा जगत् में समुच्चय जैन साहित्य का समादर बढाना, यही इस ग्रन्थमाला के स्थापन में इनका आदर्श ध्येय है । इसी ध्येय के अनुसार, श्वेताबर साहित्य की संपत्तिरूप समझे जानेवाले पूर्व प्रकाशित अन्यान्य ग्रन्थरत्नों के साथ, आज दिगम्बर साहित्य के मणिरूप . इन कृतियों का भी सर्वप्रथम प्रकाशन किया जा रहा है । और भविष्य में अन्य भी ऐसे कई दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थरत्न यथासमय प्रकाशित किये जाने की भावना है।
सिंघीजी का यह आदर्श कार्य, जैन समाज के अन्यान्य धनिक जनों के लिये अनुकरणीय है । जहाँ तक हमारा खयाल है, जैन समाज में, अभी तक सिंघी जी के जैसा आदश उदारचेता, साहित्यप्रिय और ज्ञानोपासक कोई धनिक सज्जन अग्रसर नहीं हुए, जो इस प्रकार अपने द्रव्य का, अभेदभाव से सदुपयोग करने की इच्छा रखते हों। यद्यपि, श्रीमद् राजचन्द्रजी की प्रेरणा और भावना को लक्ष्यकर, उनके कुछ अनुयायी जनों में यह सांप्रदायिक भाव शिथिल हुआ नजर आता है और उनके द्वारा संचालित रायचन्द्र ग्रन्थमाला में, जो बहुत वर्षों से बम्बई से प्रकाशित हो रही है
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