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________________ ग्रन्थमाला-मुख्यसम्पादक लिखित प्रास्ताविक सिंघी जैन ग्रन्थमाला के १२ वें मणि के रूपमें पाठकों के करकमल में, आज यह ___अकलंकग्रन्थत्रय नामक पुस्तक उपस्थित की जा रही है । इस ग्रन्थत्रय के कर्ता भट्ट श्री अकलंकदेव जैनधर्म के दिगम्बर संप्रदाय के एक महान् ज्योतिर्धर आचार्य थे। जैनमतसम्मत खास खास सिद्धान्तों और पदार्थों की प्रमाणपरिष्कृत व्याख्या और तर्काभिमत प्रतिष्ठा करने में इन आचार्य का शायद सर्वाधिक कर्तृत्व है । आर्हतमत के दार्शनिक विचारों की मौलिक सुश्रृंखला के व्यवस्थित संकलन का कार्य मुख्यतया इन तीन आचार्यों ने किया है-१ दिवाकर सिद्धसेन, २ स्वामी समन्तभद्र और ३ भट्ट अकलंकदेव । इनमें प्रथम के दो आचार्य आविष्कारक कोटिके हैं और भट्ट अकलंक समुच्चायक और प्रसारक कोटिके हैं । सिद्धसेन और समन्तभद्र, इन दोनों में कौन पूर्वकालीन हैं और कौन पश्चात्कालीन इसका अभी तक ठीक ठीक निर्णय नहीं हो पाया। ज्ञाननयन पंडित सुखलालजी ने सम्मतितर्क आदि की प्रस्तावना में, तथा जैन-इतिहासान्वेषक पं० श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार ने 'स्वामी समन्तभद्र' नामक पुस्तक में, इस विषय की यद्यपि खूब ऊहापोहपूर्ण आलोचना और विवेचना की है, तथापि अभी इसमें और भी अधिक प्रमाण और अधिक अन्वेषण की आवश्यकता अपेक्षित है इसमें सन्देह नहीं । साम्प्रदायिक मान्यतानुसार दिवाकर सिद्धसेन श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रभावक पुरुष हैं और स्वामी समन्तभद्र दिगम्बर सम्प्रदाय के । तथापि इन दोनों आचार्यों को दोनों सम्प्रदायों के अनुगामी विद्वानों ने, समान श्रद्धास्पद और समान प्रामाणिक के रूपमें • स्वीकृत और उल्लिखित किया है । जिस आदर के साथ सिद्धसेनसूरि की कृतियाँ श्वेताम्बर साहित्य में प्रतिष्ठित हैं उसी आदर के साथ वे दिगम्बर साहित्य में भी उद्धृत हैं और जो सम्मान दिगम्बर साहित्य में समन्तभद्राचार्य को समर्पित है वही सम्मान श्वेताम्बर साहित्य में भी सुस्मृत है । इन दोनों की कृतियों में, परस्पर संप्रदाय-भेद की कोई विश्लेषात्मक व्याख्या सूचित न होकर, समन्वयात्मक व्याख्या ही विशेषतः विवेचित होने से, इन दोनों का स्थान, दोनों संप्रदायों में समान सम्मान की कोटि का पात्र बना हुआ है। भट्ट अकलंकदेव, स्वामी समन्तभद्र के उपज्ञ सिद्धान्तों के उपस्थापक, समर्थक, विवेचक और प्रसारक हैं। जिन मूलभूत तात्त्विक विचारों का और तर्क-संवादों का स्वामी समन्तभद्र ने उद्बोधन या आविर्भाव किया उन्हींका भदृ अकलंकदेव ने अनेक तरह से उपवृंहण, विश्लेषण, संचयन, समुपस्थापन, संकलन और प्रसारण आदि किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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