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अकलङ्कमन्थत्रय
[पन्थ खंडन करते हुए 'तदाह' करके समन्तभद्र की 'घटमौलिसुवर्णार्थी, पयोव्रतो न दध्यत्ति, न सामान्यात्मनोदेति' इन तीन कारिकाओं के बीच में कुमारिल की "न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् । स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् ॥” यह कारिका भी उद्धृत की है। इससे मालूम होता है कि बौद्ध ग्रन्थकारों का प्रहार भेदाभेदात्मक अंश में सांख्य के साथ ही साथ जैन और जैमिनि पर समानरूप से होता था। उनका जैन के नाम से कुमारिल की कारिका को उद्धृत करना तथा समन्तभद्र की कारिका के ऊपर जैन के साथ जैमिनि का भी प्रयोग करना इस बात को स्पष्ट बतलाता है कि उनकी दृष्टि में जैन और जैमिनि में भेदाभेदात्मक माननेवालों के रूप से भेद नहीं था। तत्त्वसंग्रहकार ने तो 'विप्रनिम्रन्थकापिलैः' लिखकर इस बात को अत्यन्त स्पष्ट कर दिया है ।
___ संशयादि आठ दूषण अभी तक किसी ग्रन्थ में एक साथ नहीं देखे गए हैं। शांकरभाष्य में विरोध और संशय इन दो दूषणों का स्पष्ट उल्लेख है, तत्त्वसंग्रह में सांकर्य दूषण भी दिया गया है। बाकी प्रमाणवार्त्तिक आदि में मुख्यरूप से विरोध दूषण ही दिया गया है। वस्तुतः समस्त दूषणों का मूल आधार तो विरोध ही है। हाँ, स्याद्वादरत्नाकर ( पृ० ७३८ ) में नैयायिक की एक कारिका ‘तदुक्तम् ' करके उद्धृत की है“संशयविरोधवैयधिकरण्यसंकरमथोभयं दोषः । अनवस्था व्यतिकरमपि जैनमते सप्त दोषाः स्युः।।"
इस कारिका में एक साथ सात दूषण गिनाए गए हैं । आठ दूषणों का परिहार भी सर्वप्रथम अकलंक ने ही किया है। उन्होंने लिखा है कि-जैसे मेचकरत्न एक होकर भी अनेक विरोधी रँगों को युगपत् धारण करता है, उसी तरह प्रत्येक वस्तु विरोधी अनेक धर्मों को धारण कर सकती है | इसी मेचकरत्न के दृष्टान्त से संशयादि दोषों का परिहार भी किया है। सामान्य-विशेष का दृष्टान्त भी इसी प्रसंग में दिया है-जैसे पृथिवीत्व जाति पृथिवीव्यक्तियों में अनुगत होने से सामान्यरूप होकर भी जलादि से व्यावर्तक होने के कारण विशेषात्मक है और इस तरह परस्पर विरोधी सामान्य-विशेष उभय रूपों को धारण करती है, उसी तरह समस्त पदार्थ एक होकर भी अनेकात्मक हो सकते हैं । प्रमाणसिद्ध वस्तु में विरोधादि दोषों को कोई स्थान ही नहीं है। जिस प्रकार एक वृक्ष अवयवविशेष में चलात्मक तथा अवयवविशेष की दृष्टि से अचलात्मक होता है, एक ही घड़ा एकदेशेन लालरंग का तथा दूसरे देश में अन्य रंग का, एकदेशेन ढंका हुआ तथा अन्यदेश से अनावृत, एकदेशेन नष्ट तथा दूसरे देश से अनष्ट रह सकता है, उसी तरह एक वस्तु भी अनेकधर्मवाली हो सकती है। इति ।
स्याद्वाद महाविद्यालय काशी ) द्वि० श्रावण शुक्ल ५, नागपंचमी
वीरनि० सं० २४६५.
न्यायाचार्य महेन्द्रकुमार शास्त्री.
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