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________________ १०५ सप्तभङ्गीनिरूपण] प्रस्तावना आ सकतीक्योंकि प्रमाण में तो अनन्तधर्मों का मुख्यतया ग्रहण होता है जब कि सुनय में स्याच्छब्द-सूचित बाकी धर्म गौण रहते हैं आदि । अतः समन्तभद्र सिद्धसेन आदि द्वारा उपज्ञात यही व्यवस्था ठीक है कि-सापेक्ष नय सम्यक् , तथा निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं। ___ संशयादि दूषण-अनेकात्मक वस्तु में संशयादि दूषणों के शिकार जैन ही नहीं बने किन्तु इतर लोग भी हुए हैं। जैन की तरह पातञ्जलमहाभाष्य में वस्तु को उत्पादादिधर्मशाली कहा है। व्यासभाष्य में परिणाम का लक्षण करते हुए स्पष्ट लिखा है कि-'अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्तौ धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः' अर्थात् स्थिर द्रव्य की एक अवस्था का नाश होना तथा दूसरी का उत्पन्न होना ही परिणाम है । इसी भाष्य में 'सामान्यविशेषात्मनोऽर्थस्य' प्रयोग करके अर्थ की सामान्यविशेषात्मकता भी द्योतित की है । भट्टकुमारिल ने मीमांसाश्लोकवार्तिक में अर्थ की सामान्यविशेषात्मकता तथा भेदाभेदात्मकता का इतर-दूषणों का परिहार करके प्रबल समर्थन किया है। उन्होंने समन्तभद्र की “घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्' ( आप्तमी० का० ५१ ) जैसी"वर्धमानकभंगेन रुचकः क्रियते यदा । तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥ हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् ।" इत्यादि कारिकाएँ लिखकर बहुत स्पष्टरूप से वस्तु के त्रयात्मकत्व का समर्थन किया है। भास्कराचार्य ने भास्करभाष्य में ब्रह्म से अवस्थाओं का भेदाभेद समर्थन बहुत विस्तार से किया है। कुमारिलानुयायी पार्थसारथिमिश्र भी अवयव-अवयवी, धर्मधर्मि आदि में कथञ्चित् भेदाभेद का समर्थन करते हैं । सांख्य के मत से प्रधान एक होते हुए भी त्रिगुणात्मक, नित्य होकर भी अनित्य, अव्यक्त होकर भी व्यक्त आदि रूप से परिणामी नित्य माना गया है । व्यासभाष्य में त्रैलोक्यं व्यक्तेरपैति नित्यत्वप्रतिषेधात् , अपेतमप्यस्ति विनाशप्रतिषेधात्' लिखकर वस्तु की नित्यानित्यात्मकता द्योतित की है। इस संक्षिप्त यादी से इतना ध्यान में आजाता है कि जैन की तरह कुमारिलादि मीमांसक तथा सांख्य भेदाभेदवादी एवं नित्यानित्यवादी थे। दूषण उद्भावित करनेवालों में हम सबसे प्राचीन बादरायण आचार्य को कह सकते हैं। उन्होंने ब्रह्मसूत्र में 'नैकस्मिन्नसंभवात्'-एक में अनेकता असंभव है-लिखकर सामान्यरूप से एकानेकवादियों का खंडन किया है। उपलब्ध बौद्ध ग्रन्थों में धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिक में सांख्य के भेदाभेद में विरोध उद्भावन करके 'एतेनैव यदह्रीकाः' आदि लिखते हैं। तात्पर्य यह कि धर्मकीर्ति का मुख्य आक्षेप सांख्य के ऊपर है तथा उन्हीं दोषों का उपसंहार जैनका खंडन करते हुए किया गया है। धर्मकीर्ति के टीकाकार कर्णकगोमि जहाँ भी भेदाभेदात्मकता का खंडन करते हैं वहाँ 'एतेन जैनजैमिनीयैः यदुक्तम्' आदि शब्द लिखकर जैन और जैमिनि के ऊपर एक ही साथ प्रहार करते हैं । एक स्थान पर तो 'तदुक्तं जैनजैमिनीयैः' लिखकर समन्तभद्र की आप्तमीमांसा का 'सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे' यह कारिकांश उद्धृत किया है । एक जगह दिगम्बर का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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