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________________ १०४ अकलकप्रन्थत्रय [प्रन्थ विकलादेश-नय एक धर्म का मुख्यतया कथन करता है। जैसे 'ज्ञो जीवः' कहने से जीव के ज्ञानगुण का मुख्यतया बोध होगा तथा शेषधर्म गौणरूप से उसीके गर्भ में प्रतिभासित होंगे। एक धर्म का मुख्यतया बोध कराने के कारण ही यह वाक्य विकलादेश या नय कहा जाता जाता है । नय में भी स्यात् पद का प्रयोग किया जाता है और वह इसलिए कि शेषधर्मों की गौणता उसमें सूचित होती रहे, उनका निराकरण न हो जाय । इसीलिए स्यात्पदलाञ्छित नय सम्यक् नय कहलाता है। 'स्याज्जीव एव' यह वाक्य अनन्तधर्मात्मक जीव का अखण्डभाव से बोध कराता है, अतः यह सकलादेशवाक्य है । 'स्यादस्त्येव जीवः' इस वाक्य में जीव के अस्तित्व धर्म का मुख्यतया कथन होता है अत: यह विकलादेशात्मक नयवाक्य है । तात्पर्य यह कि सकलादेश में धर्मिवाचक शब्दके साथ एवकार का प्रयोग होता है और विकलादेश में धर्मवाचक शब्द के साथ । अकलंकदेव ने राजवार्तिक में दोनों वाक्यों का 'स्यादस्त्येव जीवः' यही उदाहरण दिया है और उनकी सकल-विकलादेशता समझाते हुए लिखा है कि-जहाँ अस्ति शब्द के द्वारा सारी वस्तु समग्रभाव से पकड़ ली जाय वहाँ सकलादेश, तथा जहाँ अस्ति के द्वारा अस्तित्वधर्ममुख्यक एवं शेषानन्तधर्मगौणक वस्तु कही जाय वह विकलादेश समझना चाहिए । इस तरह दोनों वाक्यों में यद्यपि समग्र वस्तु गृहीत हुई पर सकलादेश में सभी धर्म मुख्यरूप से गृहीत हुए हैं जब कि विकलादेश में एक ही धर्म मुख्यरूप से गृहीत हुआ है । यहाँ यह प्रश्न सहज ही उठ सकता है कि-'जब सकलादेश का प्रत्येक भंग समग्र वस्तु का ग्रहण करता है तब सकलादेश के सातों भंगों में परस्पर भेद क्या हुआ?' इसका उत्तर यह है कि यद्यपि सभी धर्मों में पूरी वस्तु गृहीत होती है सही, पर स्यादस्ति भंग में अस्तित्व धर्म के द्वारा तथा स्यान्नास्ति भंग में नास्तित्वधर्म के द्वारा । उनमें मुख्य-गौणभाव भी इतना ही है कि-जहाँ अस्ति शब्द का प्रयोग है वहाँ मात्र 'अस्ति' इस शाब्दिक प्रयोग ही की मुख्यता है धर्म की नहीं। शेषधर्मों की गौणता का तात्पर्य है उनका शाब्दिक अप्रयोग। इस तरह अकलंकदेव ने सातों ही भंगों को सकलादेश तथा विकलादेश कहा है। सिद्धसेनगणि आदि अस्ति, नास्ति तथा अवक्तव्य इन तीन भंगों को एकधर्मवाली वस्तु को ग्रहण करने के कारण विकलादेश तथा शेष भंगों को अनेकधर्मवाली वस्तु ग्रहण करने के कारण सकलादेश कहते हैं। मलयगिरि आचार्य की दृष्टि से सब ही नय मिथ्यारूप हैं । इनका कहना है कियदि नयवाक्य में स्यात् शब्द का प्रयोग किया जायगा तो वे स्याच्छब्द के द्वारा सूचित अनन्तधर्मों के ग्राहक हो जाने के कारण प्रमाणरूप ही हो जायँगे । अतः प्रमाणवाक्य में ही स्याच्छब्द का प्रयोग उनके मत से ठीक है नय वाक्य में नहीं। इसी आशय से उन्होंने अकलंक के मत की समालोचना की है। उपा० यशोविजयजी ने इसका समाधान करते हुए लिखा है कि-मात्र स्यात् पद के प्रयोग से ही नयवाक्य में प्रमाणता नहीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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