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________________ सप्तभङ्गीनिरूपण] प्रस्तावना १०३ अवक्तव्य भंग की सृष्टि होती है। यह क्रम से अस्तित्व, नास्तित्व तथा अवक्तव्यत्व धर्मों का प्रधानरूप से कथन करता है। यहाँ यह बात खास ध्यान देने योग्य है कि प्रत्येक भंग में अपने धर्म की मुख्यता रहती है तथा शेष धर्मों की गौणता। इसी मुख्य-गौणभाव के सूचनार्थ 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है । 'स्यात्' का अर्थ है कथञ्चित्, अर्थात् अमुक अपेक्षा से वस्तु इस रूप है । इससे दूसरे धर्मों का निषेध नहीं किया जाता । प्रत्येक भंग की स्थिति सापेक्ष है और इसी सापेक्षता का सूचक 'स्यात्' शब्द होता है । सापेक्षता के इंस सिद्धान्त को नहीं समझने वालों के लिए प्रत्येक भंग के साथ स्यात् शब्द के प्रयोग का नियम है; क्योंकि स्थात् शब्दके प्रयोग किए बिना उन्हें सन्देह हो सकता है। पर यदि वक्ता या श्रोता कुशल है तब इसके प्रयोग का नियम नहीं है; क्योंकि बिना प्रयोग के ही वे स्याच्छब्द के सापेक्षत्व अर्थ को बुद्धिगत कर सकते हैं। अथवा स्पष्टता के लिए इसका प्रयोग होना ही चाहिए। जैसे 'अहम् अस्मि' इन दो पदों में से किसी एक का प्रयोग करने से दूसरे का मतलब निकल आता है, पर स्पष्टता के लिए दोनों का प्रयोग किया जाता है । संसार में समझदारों की अपेक्षा कमसमझ या नासमझों की संख्या औसत दर्जे अधिक रहती श्राई है । अतः सर्वत्र स्यात् शब्द का प्रयोग करना ही राजमार्ग है । .. स्यादस्ति-अवक्तव्य आदि तीन भंग परमत की अपेक्षा भी इस तरह लगाये जाते हैं कि-अद्वैतवादियों का सन्मात्र तत्त्व अस्ति होकर भी अवक्तव्य है, क्योंकि केवल सामान्य में वचन की प्रवृत्ति नहीं होती । बौद्धों का अन्यापोह नास्तिरूप होकर भी अवक्तव्य है; क्योंकि शब्द के द्वारा मात्र अन्य का अपोह करने से किसी विधिरूप वस्तु का बोध नहीं हो सकेगा। वैशेषिक के स्वतन्त्र सामान्य और विशेष अस्ति-नास्ति रूप-सामान्य-विशेष रूप होकर भी अवक्तव्य-शब्द के वाच्य नहीं हो सकते; क्योंकि दोनों को स्वतन्त्र मानने से उनमें सामान्य-विशेषभाव नहीं हो सकेगा । सर्वथा भिन्न सामान्य और विशेष में शब्द की प्रवृत्ति नहीं होती और न वैसी हालत में कोई अर्थक्रिया ही हो सकती है । सकलादेश-विकलादेश-इन भंगों का प्रयोग दो दृष्टियों से होता है-१ सकलादेशदृष्टि, जिसे स्याद्वादशब्द से भी व्यवहृत किया गया है और यही प्रमाणरूप होती है । २ विकलादेशदृष्टि, इसे नय शब्द से कहते हैं। एक धर्म के द्वारा समस्त वस्तु को अखण्डरूप से ग्रहण करनेवाला सकलादेश है तथा उसी धर्म को प्रधान तथा शेष धर्मो को गौण करनेवाला विकलादेश है । स्याद्वाद अनेकान्तात्मक अर्थ को ग्रहण करता है, जैसे 'जीवः' कहने से ज्ञानदर्शनादि असाधारण गुणवाले, सत्त्व-प्रमेयत्वादि साधारण स्वभाववाले तथा अमूर्त्तत्व-असंख्यातप्रदेशित्व आदि साधारणासाधारण-धर्मशाली जीव का समग्र भाव से ग्रहण हो जाता है। इसमें सभी धर्म एकरूप से गृहीत होते हैं अतः यहाँ गौण-मुख्यधिवक्षा अन्तर्लीन हो जाती है । १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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