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________________ १०२ अकलङ्कप्रन्थत्रय [ग्रन्थ प्रथम भंग में वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से वस्तु का अस्तित्व विवक्षित होता है । द्वितीय भंग में परद्रव्य क्षेत्र काल भाव से नास्तित्व की विवक्षा होती है। यदि वस्तु में खद्रव्यादि की अपेक्षा से अस्तित्व न माना जाय तो वस्तु निःस्वरूप हो जायगी। और यदि पर का नास्तित्व न माना जाय तो वस्तु सांकर्य हो जायगा; क्योंकि घट में पटका नास्तित्व न रहने के कारण घट और पट एक हो जाना अनिवार्य ही है । यद्यपि आपाततः यह मालूम होता है कि स्वसत्त्व ही परासत्त्व है; पर विचार करने से मालूम हो जाता है कि ये दोनों एक दूसरे से फलित न होकर स्वतन्त्र धर्म हैं; क्योंकि इनकी प्रवृत्ति की अपेक्षाएँ भिन्न भिन्न हैं तथा कार्य भी भिन्न हैं। जब हम युगपद् अनन्तधर्मवाली वस्तु को कहना चाहते हैं तो ऐसा कोई शब्द नहीं मिलता जो ऐसी वस्तु के सभी धर्मों का या विवक्षित दो धर्मों का युगपत् प्रधान भाव से कथन कर सके। अत: कहने की अशक्ति होने के कारण वस्तु अवक्तव्य है । वस्तुतः पदार्थ खरूप से ही अनिर्वचनीय है और पदार्थ की उसी स्वरूपनिष्ठ अनिर्वाध्यता का द्योतन यह अवक्तव्य नाम का तीसरा भंग करता है । संकेत के बल पर ऐसे किसी शब्द की कल्पना तो की ही जा सकती है जो दो धर्मों का भी एकरससे कथन कर सकता हो । अतः यह भङ्ग वस्तु के मौलिक वचनातीत पूर्णरूप का द्योतन करता है। __ चौथा अस्ति-नास्ति भंग-दोनों धर्मों की कम से विवक्षा होने पर बनता है । क्रम से यहाँ कालिकक्रम ही समझना चाहिये । अर्थात् प्रथम समय में अस्ति की विवक्षा तथा दूसरे समय में नास्ति की विवक्षा हो और दोनों समयों की विवक्षा को मोटी दृष्टि से देखने पर इस तृतीय भंग का उदय होता है। और यह क्रम से अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मों का प्रधानरूप से कथन करता है । पाँचवाँ अस्ति-अवक्तव्य भंग-अस्तित्व और अवक्तव्य की क्रमिक विवक्षा में, अर्थात् प्रथम समय में अस्तित्व की विवक्षा तथा दूसरे समय में अवक्तव्य की विवक्षा होने पर तथा दोनों समय की विवक्षाओं पर स्थूल दृष्टि से विचार करने पर अस्ति-अवक्तव्य भंग माना जाता है । यह क्रम से अस्तित्व और अवक्तव्यत्व का प्रधानभाव से कथन करता हैं । छठवाँ नास्ति-अवक्तव्य भंग-नास्तित्व और अवक्तव्य की क्रमिक विवक्षा में । अर्थात् प्रथम समय में नास्तित्व की विवक्षा तथा दूसरे समय में अवक्तव्य की विवक्षा होने पर तथा दोनों समयों की विवक्षाओं पर व्यापकदृष्टि रखने पर नास्ति-अवक्तव्य भंग की प्रवृत्ति होती है। यह क्रम से नास्तित्व और अवक्तव्यत्व का प्रधानभाव से कथन करता है । __सातवाँ अस्ति-नास्ति-अवक्तव्यभंग-अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य की क्रमिक विवक्षा में, अर्थात् प्रथम समय में अस्तित्व की विवक्षा, दूसरे समय में नास्तित्व की विवक्षा से अस्तिनास्ति भंग बना, इसीके अनन्तर तृतीय समय में अवक्तव्य की विवक्षा होने पर तथा तीनों समयों की विवक्षाओं पर स्थूल दृष्टि से विचार करने पर अस्ति नास्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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