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________________ प्रस्तावना सप्तभङ्गीनिरूपण ] १०१ अप्रस्तुत अर्थ का निराकरण, प्रस्तुत अर्थ का प्ररूपण एवं संशयविनाशन के लिए निक्षेप की सार्थकता है। भव्युत्पन्न श्रोता की अपेक्षा अप्रस्तुत का निराकरण करने के लिए, व्युत्पन्न की अपेक्षा यदि वह संशयित है तो संशयविनाश के लिए और यदि विपर्यस्त है तो प्रस्तुत अर्थ के प्ररूपण के लिए निक्षेप की सार्थकता है। ६५. सप्तभंगीनिरूपण सप्तभंगी-प्रश्न के अनुसार वस्तु में प्रमाणाविरोधी विधि-प्रतिषेध की कल्पना को सप्तभंगी कहते हैं । विचार करके देखा जाय तो सप्तभंगी में मूल भंग तो तीन ही हैं, बाकी भंग संयोगज हैं। आगम ग्रन्थों में 'सिय अस्थि, सिय णत्थि, सिय अवत्तव्वा' रूप से तीन ही भंगों का निर्देश है । सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में हमें सात भंगों के दर्शन होते हैं। अनेकान्तदृष्टि का उद्देश परस्पर विरोधी धर्मों का समन्वय करना है। वस्तुत: विरोध तो दो में ही होता है जैसे नित्यत्व का अनित्यत्व से, भेद का अभेद से इत्यादि । अतः पहिले तो परस्पर विरोधी दो धर्मों के समन्वय करने की ही बात उठती है। ऐसे अनेक विरोधी युगल वस्तु में रह सकते हैं अतः वस्तु अनेकान्तात्मक एवं अनन्तधर्मा कही जाती है | अवक्तव्य धर्म तो वस्तु की वास्तविक स्थिति बतानेवाला है कि वस्तु का अखण्ड आत्मरूप. शब्दों का विषय नहीं हो सकता । कोई ज्ञानी अनिर्वचनीय, अखण्ड वस्तु को कहना चाहता है, वह पहिले उसका अस्तिरूपसे वर्णन करता है पर वस्तु के पूर्ण वर्णन करने में असमर्थ होने पर नास्तिरूपसे वर्णन करता है। पर इससमय भी वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता की सीमा तक नहीं पहुँच पाता। लिहाजा कोशिश करने पर भी अन्त में उसे अवक्तव्य कहता है । शब्द में वस्तुतः इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह समग्रवस्तु का पूर्णरूपसे प्रतिपादन करे। इसी अनिर्वचनीय तत्त्व का उपनिषदों में 'अस्ति अस्ति' रूपसे तथा 'नेति नेति' रूपसे भी वर्णन करने का प्रयत्न किया गया है। पर वर्णन करने वाला अपनी तथा शब्द की असामर्थ्य पर खीज़ उठता है और अन्त में वरवस कह उठता है कि-'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह'-जिसके वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति वचन तथा मन भी नहीं कर सकते अतः वे भी उससे निवृत्त हो जाते हैं, ऐसा है वह बचन तथा मनका अगोचर अखण्ड, अनिर्वचनीय, अनन्तधर्मा वस्तुतत्त्व । इसी स्थिति के अनुसार अस्ति, नास्ति तथा अवक्तव्य ये तीन ही मूल भंग हो सकते है । आगे के भंग तो वस्तुतः कोई स्वतन्त्र भंग नहीं हैं। कार्मिक भंगजाल की तरह द्विसंयोगीरूप से तृतीय, पञ्चम तथा षष्ठ भंग का आविर्भाव हुआ तथा सप्तमभंग का त्रिसंयोगी के रूप में। तीन मूल भंगों के अपुनरुक्त भंग सात ही हो सकते हैं। कहीं कहीं अवक्तव्य भंग का नंबर तीसरा है और कहीं उभय भंग का। वस्तुतः अवक्तव्य मूल भंग है। अतः उसीका नंबर तीसरा होना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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