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________________ १०० अकलङ्कप्रन्धत्रय [प्रन्थ क्रिया कर रहा हो उसी समय उसे इन्द्र कह सकते हैं दूसरे समय में नहीं । समभिरूढ नय उस समय क्रिया हो या न हो, पर अतीत अनागत क्रिया या उस क्रिया की योग्यता होने के कारण तच्छब्द का प्रयोग मान लेता है । पर एवम्भूत नय क्रिया की मौजूदगी में ही तक्रिया से निष्पन्न शब्द के प्रयोग को साधु मानता है । इस नय की दृष्टि से जब कार्य कर रहा है तभी कारक कहा जायगा, कार्य न करने की अवस्था में कारक नहीं कहा जा सकता। क्रियाभेद होने पर भी अर्थ को अभिन्न मानना एवम्भूताभास है। इन नयों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता एवं अल्पविषयता है । नैगमनय संकल्पग्राही होने से सत् असत् दोनों को विषय करता था इसलिए सन्मात्रग्राही संग्रह नय उससे सूक्ष्म एवं अल्पविषयक होता है । सन्मात्रग्राही संग्रह नय से सद्विशेषग्राही व्यवहार अल्पविषयक एवं सूक्ष्म हुआ। त्रिकालवर्ती सद्विशेषग्राही व्यवहारनय से वर्तमानकालीन सद्विशेष-अर्थपर्यायग्राही ऋजुसूत्र सूक्ष्म है । शब्दभेद होने पर भी अभिन्नार्थग्राही ऋजुसूत्र से कालादिभेद से शब्दभेद मानकर भिन्न अर्थ को ग्रहण करनेवाला शब्दनय सूक्ष्म है। पर्याय मेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को ग्रहण करनेवाले शब्दनय से पर्यायवाची शब्दों के भेद से अर्थभेदग्राही समभिरूढ अल्पविषयक एवं सूक्ष्मतर हुआ। क्रियाभेद से अर्थभेद नहीं माननेवाले समभिरूढ से क्रियाभेद होने पर अर्थभेदग्राही एवम्भूत परमसूक्ष्म एवं अत्यल्पविषयक होता है । ६४. निक्षेपनिरूपण निक्षेप-अखण्ड एवं अनिर्वचनीय वस्तु को व्यवहार में लाने के लिए उसमें भेद कल्पना करने को निक्षेप कहते हैं । व्यवहार ज्ञान, शब्द तथा अर्थरूप से तीन प्रकार का होता है । शब्दात्मक व्यवहार के लिए ही वस्तु का देवदत्त आदि नाम रखा जाता है। अतः शब्दव्यवहार के निर्वाह के लिए नाम निक्षेप की सार्थकता है। ज्ञानात्मक-व्यवहार के लिए स्थापना निक्षेप तथा अर्थात्मक व्यवहार के लिए द्रव्य और भाव निक्षेप सार्थक हैं। शब्द का प्रयोग जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया आदि निमित्तों की अपेक्षा से होता है । जाति, द्रव्य, गुण आदि निमित्तों की अपेक्षा न करके इच्छानुसार संज्ञा रखने को नामनिक्षेप कहते हैं। जैसे किसी बालक की गजराज संज्ञा मात्र इच्छानुसार ही की गई है, उसमें गजत्वजाति, गज के गुण, गजकी क्रिया आदि की अपेक्षा नहीं है । जिसका नामकरण हो चुका है उसकी उसी आकारवाली प्रतिमा या चित्र में स्थापना करना सद्भाव या तदाकार स्थापना कहलाती है । तथा भिन्न आकारवाली वस्तु में स्थापना करना असद्भाव या अतदाकार स्थापना कहलाती है, जैसे शतरंज के मुहरों में घोड़े आदि की स्थापना । भविष्यत्कालीन राजपर्याय की योग्यता के कारण या बीती हुई राजपर्याय का निमित्त लेकर वर्तमान में किसी को राजा कहना द्रव्य निक्षेप है। तत्पर्यायप्राप्त वस्तु में तत्व्यवहार को भावनिक्षेप कहते हैं, जैसे वर्तमान राजपर्यायवाले राजा को ही राजा कहना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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