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अकलङ्कग्रन्थत्रय
[प्रन्थ
का संग्रह करनेवाला संग्रहनय है। इस नय की दृष्टि से कह सकते हैं कि-विश्व एक है, अद्वैत है; क्योंकि सन्मात्रतत्त्व सर्वत्र व्याप्त है । यह ध्यान रहे कि-इस नय में शुद्ध । सन्मात्र विषय होने पर भी भेद का निराकरण नहीं है, भेद गौण अवश्य हो जाता है। . यद्यपि अद्वयब्रह्मवाद भी सन्मात्रतत्त्व को विषय करता है पर वह भेद का निराकरण करने के कारण संग्रहाभास है । नय सापेक्ष प्रतिपक्षी धर्मकी अपेक्षा रखनेवाला, तथा दुर्नय निरपेक्ष-परपक्ष का निराकरण करनेवाला होता है ।
व्यवहार-व्यवहाराभास-संग्रहनय के द्वारा गृहीत अर्थ में विधिपूर्वक अविसंवादीवस्तुस्थितिमूलक भेद करनेवाला व्यवहार नय है। यह व्यवहारनय लोकप्रसिद्ध व्यवहार का अविरोधी होता है। लोकव्यवहारविरुद्ध, वस्तुस्थिति की अपेक्षा न करनेवाली भेदकल्पना व्यवहाराभास है । लोकव्यवहार अर्थ, शब्द तथा ज्ञानरूप से चलता है। जैसे जीवव्यवहार जीव अर्थ, जीवशब्द तथा जीवविषयक ज्ञान इन तीनों प्रकारों से हो सकता है । 'वस्तु उत्पादव्ययध्रौव्यवाली है, द्रव्य गुणपर्यायवाला है, जीव चैतन्यरूप है' इत्यादि वाक्य प्रमाण से अविरोधी होने के कारण तथा लोकव्यवहार में अविसंवादी होने से प्रमाण हैं, एवं पूर्वापर के अविरोधी होने से ये सद्व्यवहार के विषय हैं । प्रमाणविरुद्ध कल्पनाएँ व्यवहाराभास हैं; जैसे सौत्रान्तिक का जड़ या चेतन सभी पदार्थों को क्षणिक, निरंश, परमाणुरूप मानना, योगाचार का क्षणिक अविभागी विज्ञानाद्वैत मानना, तथा माध्यमिक का सर्वशून्यता स्वीकार करना। ये सब व्यवहाराभास प्रमाणविरोधी तथा लोकव्यवहार में विसंवादक होते हैं। जो भेदव्यवहार अभेद की अपेक्षा रखेगा वही व्यवहारनय की परिधि में आयगा, तथा जो अभेद का निराकरण करेगा वह दुर्व्यवहार-व्यवहाराभास कहलायगा ।
ऋजुसूत्र-तदाभास-ऋजुसूत्र नय पदार्थ की एक क्षणरूप शुद्ध वर्तमानकालवर्ती अर्थपर्याय को विषय करनेवाला है। इसकी दृष्टि में अभेद कोई वास्तविक नहीं है । चित्रज्ञान भी एक न होकर अनेक ज्ञानों का समुदायमात्र है । इस तरह समस्त जगत् एक दूसरे से बिलकुल भिन्न है, एक पर्याय दूसरी पर्याय से भिन्न है । यह भेद इतना सूक्ष्म है कि स्थूलदृष्टिवाले लोगों को मालूम नहीं होता । जैसे परस्पर में विभिन्न भी वृक्ष दूर से सघन तथा एकाकार रूपसे प्रतिभासित होते हैं, ठीक इसी तरह अभेद एक प्रातिभासिक वस्तु है। इस नय की दृष्टि में एक या नित्य कोई वस्तु ही नहीं है; क्योंकि भेद और अभेद का परस्पर में विरोध है। इस तरह यह ऋजुसूत्र नय यद्यपि भेद को मुख्यरूप से विषय करता है पर वह अभेद का प्रतिक्षेप नहीं करता। यदि अभेद का प्रतिक्षेप कर दे तो बौद्धाभिमत क्षणिकतत्त्व की तरह ऋजुसूत्राभास हो जायगा। सापेक्ष ही नय होता है । निरपेक्ष तो दुर्नय कहलाता है । जिस प्रकार भेद का प्रतिभास होने से वस्तु में भेद की व्यवस्था है उसी तरह जब अभेद का भी प्रतिभास होता है तो उसकी भी व्यवस्था होनी ही चाहिए । भेद और अभेट दोनों ही सापेक्ष हैं। एक का लोप करने से दूसरे का लोप होना अवश्यम्भावी है ।
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