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नयनिरूपण ]
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हैं । कोई भी ज्ञान सन्मान द्रव्य को बिना जाने भेदों को नहीं जान सकता । कोई भी भेद सन्मात्र से बाहिर अर्थात् असत् नहीं है । प्रत्यक्ष चाहे चेतन सुखादि में प्रवृत्ति करे या बाह्य नीलादि श्रचेतन पदार्थों में, वह सद्रूप से प्रभेदांश को विषय करता ही है । संग्रहनय की इस अभेददृष्टि से सीधी टक्कर लेनेवाली बौद्ध की भेद दृष्टि । जिसमें अभेद को कल्पनात्मक कहकर वस्तु में कोई स्थान ही नहीं दिया गया है । - इस सर्वथा भेददृष्टि के कारण ही बौद्ध अवयवी, स्थूल, नित्य आदि अभेददृष्टि के विषयभूत पदार्थों की सत्ता ही नहीं मानते । नित्यांश कालिक प्रभेद के आधार पर स्थिर है; क्योंकि जब वही एक वस्तु त्रिकालानुयायी होगी तभी वह नित्य कही जा सकती है । अवयवी तथा स्थूलांश दैशिक- अभेद के आधार से माने जाते जाते हैं; जब एक वस्तु अनेक अवयव में कथञ्चित्तादात्म्यरूपसे व्याप्ति रखे तभी अवयवी व्यपदेश पा सकती है । स्थूलता में भी अनेक प्रदेशव्यापित्वरूप दैशिक अभेददृष्टि ही अपेक्षणीय होती है ।
कलङ्कदेव कहते हैं कि - बौद्ध सर्वथा भेदात्मक खलक्षण का जैसा वर्णन करते हैं वैसा सर्वथा क्षणिक पदार्थ न तो किसी ज्ञान का विषय ही हो सकता है. और न कोई अर्थक्रिया ही कर सकता है । जिस प्रकार एक क्षणिक ज्ञान अनेक आकारों में युगपद् व्याप्त रहता है उसी तरह एकद्रव्य को अपनी क्रम से होनेवाली पर्यायों में व्याप्त होने में क्या बाधा है ? इसी अनादिनिधन द्रव्य की अपेक्षा से वस्तुओं में अभेदांश की प्रतीति होती है । क्षणिक पदार्थ में कार्य कारणभाव सिद्ध न होने के कारण अर्थक्रिया की तो बात ही नहीं करनी चाहिये । 'कारण के होने पर कार्य होता है' यह नियम तो पदार्थ को एकक्षणस्थायी माननेवालों के मत में स्वप्न की ही चीज है; क्योंकि एक क्षणस्थायी पदार्थ के सत्ताक्षण में ही यदि कार्य की सत्ता स्वीकार की जाय; तब तो कारण और कार्य एकक्षणवर्ती हो जायगे और इस तरह वे कार्य-कारणभाव को असंभव बना देंगे । यदि कारणभूत प्रथमक्षण कार्यभूत द्वितीयक्षण तक ठहरे तब तो क्षणभँगवाद कहाँ रहा ? क्योंकि कारणक्षण की सत्ता कम से कम दो क्षण मानना पड़ी। इस तरह कार्यकारणभाव के अभाव से जब क्षणिक पदार्थ में अर्थक्रिया ही नहीं बनती तब उसकी सत्ता की आशा करना मृगतृष्णा जैसी ही है । और जब वह सत् ही सिद्ध नहीं होता तब प्रमाण का विषय कैसे माना जाय ? जिस तरह बौद्धमत में कारण अपने देश में रहकर भी भिन्नदेशवर्ती कार्य को व्यवस्थितरूप से उत्पन्न कर सकता है उसी तरह जब अभिन्न नित्य पदार्थ भी अपने समय में रहकर कार्य को कार्यकाल में ही उत्पन्न कर सकता है, तब अभेद को असत् क्यों माना जाय ? जिस तरह चित्रज्ञान अपने आकारों में, गुणी गुणों में तथा अवयवी अपने अवयवों में व्याप्त रहता है उसी तरह द्रव्य अपनी क्रमिक पर्यायों को भी व्याप्त कर सकता है । द्रव्यदृष्टि से पर्यायों में कोई भेद नहीं है । इसी तरह सन्मात्र की दृष्टि से समस्त पदार्थ अभिन्न हैं । इस तरह अभेददृष्टि से पदार्थों
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