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________________ अकलकप्रन्थत्रय [प्रन्थ जो ज्ञानस्वरूप नहीं है वह ज्ञान के समवाय से भी कैसे 'ज्ञ' बन सकता है ! यदि भज्ञ वस्तु भी ज्ञान के समवाय से 'ज्ञ' हो जाय; तो समवाय खयं 'ज्ञ' बन जायगा; क्योंकि समवाय आत्मा में ज्ञान का सम्बन्ध तभी करा सकता है जब वह स्वयं ज्ञान और आत्मा से सम्बन्ध रखे। कोई भी सम्बन्ध अपने सम्बन्धियों से असम्बद्ध रहकर सम्बन्धबुद्धि नहीं करा सकता। अतः यह मानना ही चाहिये कि-ज्ञानपर्यायवाली वस्तु ही ज्ञान के सम्बन्ध को पा सकती है । अतः वैशेषिक का गुण आदि का गुणी आदि से निरपेक्ष-सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है । इसी तरह सांख्य का ज्ञान सुखादि को आत्मा से भिन्न मानना नैगमाभास है। वह मानता है कि-सत्त्वरजस्तमोरूप-त्रिगुणात्मक प्रकृति के ही सुख-ज्ञानादिक धर्म हैं, वे उसी में आविर्भूत तथा तिरोहित होते हैं । इसी प्रकृति के संसर्ग से पुरुष में ज्ञानादि की प्रतीति होती है । प्रकृति इस ज्ञानसुखादिरूप व्यक्त-कार्य की दृष्टि से दृश्य है तथा अपने कारणरूप-अव्यक्तखरूप से अदृश्य है । पुरुष चेतनरूप तथा कूटस्थ-अपरिणामी नित्य है । इस तरह वह चैतन्य से बुद्धि को भिन्न समझकर उसे पुरुष से भी भिन्न मानता है । उसका यह ज्ञान और आत्मा का सर्वथा भेद मानना भी नैगमाभास है; क्योंकि चैतन्य तथा ज्ञान में कोई भेद नहीं है। बुद्धि, उपलब्धि, चैतन्य, ज्ञान आदि सभी पर्यायवाची शब्द हैं। यदि चैतन्य पुरुष का धर्म हो सकता है; तो ज्ञान को भी उसीका ही धर्म होना चाहिये । प्रकृति की तरह पुरुष भी ज्ञानादिरूप से दृश्य होता है। 'सुख ज्ञानादिक सर्वथा अनित्य हैं, चैतन्य सर्वथा नित्य है' यह भी प्रमाणसिद्ध नहीं है; क्योंकि पर्यायदृष्टि से उनमें अनित्यता रहने पर भी चैतन्यसामान्य की अपेक्षा नित्यता भी है। इस तरह वैशेषिक का गुण-गुण्यादि में सर्वथा भेद मानना तथा सांख्य का पुरुष से बुद्धयादि का भेद मानना नैगमाभास है; क्योंकि इनमें अभेद अंश का निराकरण ही हो गया है । संग्रह-संग्रहाभास-समस्त पदार्थों को अभेदरूपसे ग्रहण करनेवाला नय संग्रहनय है । यह परसंग्रह तथा अपरसंग्रह के भेद से दो प्रकार का है। परसंग्रह में सत् रूप से समस्त पदार्थों का संग्रह किया जाता है, तथा अपरसंग्रह में द्रव्यरूपसे समस्त द्रव्यों का, गुणरूपसे समस्त गुणों का, गोत्वरूपसे समस्त गौओं का आदि। यह अपरसंग्रह तब तक चलता है जब तक कि भेद अपनी चरम कोटि तक नहीं पहुँच जाता। अर्थात् जब व्यवहारनय भेद करते करते ऋजुसूत्र नय के विषयभूत एक वर्तमान कालीन अर्थपर्याय तक पहुँचता है तब अपरसंग्रह की मर्यादा समाप्त हो जाती है । अपरसंग्रह और व्यवहारनय का क्षेत्र तो समान है पर दृष्टि में भेद है । जब अपरसंग्रह में तद्गत अभेदांश के द्वारा संग्रह की दृष्टि है तब व्यवहारनय में भेद की ही प्रधानता है । परसंग्रहनय की दृष्टि में सदूप से सभी पदार्थ एक हैं उनमें कोई भेद नहीं हैं। जीव अजीव आदि सभी सद्रूप से अभिन्न हैं। जिस प्रकार एक चित्रज्ञान अपने नीलादि अनेक आकारों में व्याप्त है उसी तरह सन्मात्रतत्त्व सभी पदार्थों में व्याप्त है, जीव अजीव आदि सब उसी के भेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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