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________________ ६५ नय निरूपण ] सामान्य-विशेष में सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है; क्योंकि - गुण गुणी से अपनी पृथक् सत्ता नहीं रखता और न गुणों की उपेक्षा करके गुणी ही अपना अस्तित्व रख सकता है । अतः इनमें कथञ्चित्तादात्म्य सम्बन्ध मानना ही समुचित है। इसी तरह अवयव अवयवी, क्रियाक्रियावान् तथा सामान्य - विशेष में भी कथञ्चित्तादात्म्य ही सम्बन्ध है । यदि गुण आदि गुणी आदि से बिलकुल भिन्न स्वतन्त्र पदार्थ हों; तो उनमें नियत सम्बन्ध न होने के कारण गुण-गुण्यादिभाव नहीं बन सकेगा । अवयवी यदि अवयवों से सर्वथा पृथक् है; तो उसकी अपने अवयवों में वृत्ति-सम्बन्ध मानने में अनेकों दूषण आते हैं । यथा - अवयवी अपने प्रत्येक अवयवों में यदि पूर्णरूप से रहता है; तो जितने अवयव हैं उतने ही स्वतन्त्र अवयवी सिद्ध होंगे । यदि एकदेश से रहेगा; तो जितने अवयव हैं अवयवी के उतने ही देश मानना होंगे, उन देशों में भी वह 'सर्वात्मना रहेगा या एक देश से' इत्यादि विकल्प होने से अनवस्था दूषण आता है । प्रस्तावना सत्तासामान्य का अपनी व्यक्तियों से सर्वथा भेद मानने पर, सत्तासम्बन्ध से पहिले द्रव्य, गुण और कर्म व्यक्तियों को सत् माना जाय, या असत् ? यदि वे असत् हैं; तो उनमें सत्तासम्बन्ध नहीं हो सकता । सत्ता सर्वथा सत् खरविषाणादि में तो नहीं रहती । यदि वे सत् हैं; तो जिस प्रकार स्वरूपसत् द्रव्यादि में सत्तासम्बन्ध मानते हो उसी तरह स्वरूपसत् सामान्यादि में भी सत्तासम्बन्ध स्वीकार करना चाहिये । अथवा जिस प्रकार सामान्यादि स्वरूपसत् हैं उनमें किसी अन्य सत्ता के सम्बन्ध की आवश्यकता नहीं है, उसी तरह द्रव्य, गुण, कर्म को भी स्वरूपसत् ही मानना चाहिए । स्वरूपसत् में अतिरिक्त सत्ता का समवाय मानना तो बिलकुल ही निरर्थक है । इसी तरह गोत्वादि जातियों को शाबलेयादि व्यक्तियों से सर्वथा भिन्न मानने में अनेकों दूषण आते हैं । यथा - जब एक गौ उत्पन्न हुई; तब उसमें गोत्व कहाँ से आयगा ? उत्पन्न होने के पहिले गोत्व उस देश में तो नहीं रह सकता; क्योंकि गोत्वसामान्य गोविशेष में ही रहता है गोशून्य देश में नहीं । निष्क्रिय होने से गोत्व अन्य देश से आ नहीं सकता । यदि अन्य देश से आवे भी, तो पूर्वपिण्ड को एकदेश से छोड़ेगा या बिलकुल ही छोड़ देगा ? निरंश होने के कारण एकदेश से पूर्व पिण्ड को छोड़ना युक्तिसंगत नहीं है । यदि गोत्व पूर्णरूप से पूर्व गोपिण्ड को छोड़कर नूतन गौ में याता है; तब तो पूर्वपिण्ड गौ-गोत्वशून्य हो जायगा, उसमें गौव्यवहार नहीं हो सकेगा । यदि गोत्वसामान्य सर्वगत है; तो गोव्यक्तियों की तरह अश्वादिव्यक्तियों में भी गोव्यवहार होना चाहिए । अवयव और अवयवी के सम्बन्ध में एक बड़ी विचित्र बात यह है कि -संसार तो यह मानता है कि पट में तन्तु, वृक्ष में शाखा तथा गौ में सींग रहते हैं, पर 'तन्तुओं में पट, शाखाओं में वृक्ष तथा सींग में गौ' का मानना तो सचमुच एक अलौकिक ही बात है । अतः गुण आदि का गुणी आदि से कथश्चित्तादात्म्य सम्बन्ध मानना ही युक्तिसंगत है । कथचित्तादात्म्य का तात्पर्य यह है कि-गुण आदि गुणी आदि रूप ही हैं उनसे भिन्न नहीं हैं। १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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