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नयनिरूपण ]
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अनेकान्तदृष्टिवाला रामचन्द्र पास के कमरे से अपने होनहार लड़कों की कल्पनाशक्ति एवं बुद्धिपटुता से प्रसन्न होकर भी उसके फलस्वरूप होनेवाली हिंसा - मारपीट से खिन्न हो जाता है। वह उन दोनों की गलती समझ जाता है और उन्हें बुलाकर धीरे से समझाता हैबेटा देवदत्त, यह ठीक है कि मैं तुम्हारा पिता हूँ, पर केवल तुम्हारा पिता ही तो नहीं हूँ, इसका मामा भी तो हूँ । इसी तरह यज्ञदत्त को समझाता है कि बेटा यज्ञदत्त, तुम भी ठीक कहते हो, मैं तुम्हारा तो मामा ही हूँ, पर यज्ञदत्त का पिता भी तो हूँ। यह सुनते ही दोनों भाइयों की दृष्टि खुल जाती है । वे झगड़ना छोड़कर आपस में बड़े हेलमेल से रहने लगते हैं । इस तरह हम समझ सकते हैं कि - एक एक धर्म के समर्थन में वस्त्वंश को लेकर घढ़ गईं दलीलें तब तक बराबर चालू रहेंगी और एक दूसरे का खंडन ही नहीं किन्तु उससे होनेवाले रागद्वेष - हिंसा की परम्परा बराबर चलेगी जब तक कि अनेकान्तदृष्टि उनकी चरमरेखा बनाकर समन्वय न कर देगी। इसके बाद तो मस्तिष्क के व्यायामस्वरूप दलीलों का दलदल अपने आप सूख जायगा ।
प्रस्तावना
प्रत्येक पक्ष के वकीलों द्वारा अपने पक्षसमर्थन के लिए सङ्कलित दलीलों की फाइल की तरह न्यायाधीश का फैसला भले ही आकार में बड़ा न हो; पर उसमें वस्तुस्पर्श, व्यावहारिकता एवं सूक्ष्मता के साथ ही साथ निष्पक्षपातिता अवश्य ही रहती है । उसी तरह एकान्तके समर्थन में प्रयुक्त दलीलों के भण्डारभूत एकान्तवादी दर्शनों की तरह जैनदर्शन में कल्पनाओं का चरम विकास न हो और न उसका परिमाण ही अधिक हो; पर उसकी वस्तुस्पर्शिता, व्यावहारिकता, तटस्थवृत्ति एवं अहिंसाधारता में तो सन्देह किया ही नहीं जा सकता। हो सकता है कि उत्तरकाल में मध्यकालीन आचार्यों द्वारा अंशत: परपक्षखंडन में पड़ने के कारण उस मध्यस्थता का उसरूप में निर्वाह न हुआ हो; पर वह दृष्टि उनके पास सदा जाग्रत रही, और उसीके श्रेयः प्रकाश में उन्होंने परपक्ष को भी नयदृष्टि से उचित स्थान दिया । जिस तरह न्यायाधीश के फैसले के उपक्रम में उभयपक्षीय वकीलों की दलीलों के बलाबल की जाँच में एक दूसरे की दलीलों का यथासंभव उपयोग होकर अन्त में उनके निःसार भाग की समालोचनापूर्वक व्यवहार्य फैसला होता है । उसी तरह जैनदर्शन में एक एकान्त के खण्डनार्थ या उसके बलाबल की जाँच के लिए द्वितीय एकान्तबादी की दलीलों का पर्याप्त उपयोग देखा जाता है । अन्त में उनकी समालोचना होकर उनका समन्वयात्मक फैसला दिया गया है । एकान्तवादी दर्शनों के समन्वयात्मक फैसले की ये मिसलें ही जैनदर्शनशास्त्र हैं ।
बात यह है कि - भग० महावीर कार्यशील महिंसक व्यक्ति थे । वे वादी नहीं थे किन्तु सन्त थे । उन्हें वाद की अपेक्षा कार्य सदाचरण अधिक पसन्द था, और जब तक हवाई बातों से कार्योपयोगी व्यवहार्य मार्ग न निकाला जाय तब तक कार्य होना ही कठिन था । मानस-अहिंसा के संवर्द्धन, परिपोषण के लिए अनेकान्तदृष्टिरूपी संजीवनी की आवश्य
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