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अकलङ्कप्रन्थत्रय
[प्रन्थ कता थी। वे बुद्धिजीवी या कल्पनालोक में विचरण करनेवाले नहीं थे। उन्हें तो सर्वाङ्गीण अहिंसाप्रचार का सुलभ रास्ता निकाल कर जगत् को शान्ति का सहज सन्देश देना था। उन्हें मस्तिष्क के शुष्क कल्पनात्मक व्यायाम की अपेक्षा हृदय से निकली हुई व्यवहार्य अहिंसा की छोटी सी आवाज़ ही अधिक कारगर मालूम होती थी। यह ठीक है किबुद्धिजीवीवर्ग जिसका आचरण से विशिष्ट सम्पर्क न हो, बैठेठाले अनन्तकल्पना जाल से ग्रन्थ Dथी करे और यही कारण है कि-बुद्धिजीवीवर्ग द्वारा वैदिक दर्शनों का पर्याप्त प्रसार हुआ। पर कार्यक्षेत्र में तो केवल कल्पनाओं से ही निर्वाह नहीं हो सकता था; वहाँ तो व्यवहार्य मार्ग निकाले बिना चारा ही नहीं था। भग० महावीर ने अनेकान्तदृष्टि रूप, जिसे हम जैनदर्शन की जान कहते हैं, एक वह व्यवहार्यमार्ग निकाला जिसके समुचित उपयोग से मानसिक, वाचिक तथा कायिक अहिंसा पूर्णरूपसे पाली जा सकती है। इस तरह भग० महावीर की यह अहिंसाखरूपा अनेकान्तदृष्टि ही जैनदर्शन के भव्य प्रासाद का मध्यस्तम्भ है । इसीसे जैनदर्शन की प्राणप्रतिष्ठा है। भारतीय दर्शनशास्त्र सचमुच इस अतुलसत्य को पाये बिना अपूर्ण रहता। जैनदर्शन ने इस अनेकान्तदृष्टि के आधार से बनी हुए महत्त्वपूर्ण ग्रन्थराशि देकर भारतीय दर्शनशास्त्र के कोषागार में अपनी ठोस और पयात पूँजी जमा की है। पूर्वकालीन युगप्रधान समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि दार्शनिकों ने इसी दृष्टि के समर्थनद्वारा सत्-असत्, नित्यत्वानित्यत्व, भेदाभेद, पुण्य-पापप्रकार, अद्वैतद्वैत, भाग्य-पुरुषार्थ, आदि विविध वादों में पूर्ण सामञ्जस्य स्थापित किया । मध्यकालीन अकलंक, हरिभद्र आदि तार्किकों ने अंशतः परपक्ष का खण्डन करके भी उसी दृष्टि को प्रौढ़ किया। इसी दृष्टि के विविध प्रकार से उपयोग के लिए सप्तभंगी, नय, निक्षेप आदि का निरूपण हुआ। इस तरह भग० महावीर ने अपनी अहिंसा की पूर्णसाधना के लिए अनेकान्तदृष्टि का अविर्भाव करके जगत् को वह ध्रुवबीजमन्त्र दिया जिसका समुचित उपयोग संसार को पूर्ण सुख-शान्ति का लाभ करा सकता है ।
नय-जब भग० महावीर ने मानस अहिंसा की पूर्णता के लिए अनेकान्तदृष्टि का सिद्धान्त निकाला, तब उसको कार्यरूप में परिणत करने के लिए कुछ तफसीली बातें सोचना आवश्यक हो गया कि कैसे इस दृष्टि से प्रचलित वादों का उचित समीकरण हो ? इस अनेकान्तदृष्टि की कामयाबी के लिए किए गए मोटे मोटे नियमों का नाम नय है । साधारणतया विचार-व्यवहार तीन प्रकार के होते हैं-१ ज्ञानाश्रयी, २ अर्थाश्रयी, ३ शब्दाश्रयी । कोई व्यक्ति ज्ञान की सीमा में ही अपने विचारों को दौड़ाता है उसे अर्थ की स्थिति की कोई परवाह ही नहीं रहती। ऐसे मनसूबा बाँधनेवाले, हवाई किले बनानेवाले, शेखचिल्ली की तरह विचारों की धुन में ही मस्त रहनेवाले लोग अपने विचारों को ज्ञान ही ज्ञान-कल्पनाक्षेत्र में ही दौड़ाते रहते हैं। दूसरे प्रकार के लोग अर्थानुसारी विचार करते हैं। अर्थ में एकओर एक, नित्य और व्यापीरूपसे चरम अभेद की कल्पना की
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