SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६० अकलङ्कग्रन्थत्रय [प्रन्थ उत्तरकालीन आचार्यों ने खूब लिखा। उन्होंने उदारता पूर्वक यहाँ तक लिखा है कि'समस्त मिथ्यैकान्तों का समूह ही अनेकान्त है, समस्त पाखण्डों के समुदाय अनेकान्त की जय हो ।' यद्यपि पातञ्जलदर्शन, भास्करीयवेदान्त, भाट्ट आदि दर्शनों में भी इस समन्वयदृष्टि का उपयोग हुअा है; पर स्याद्वाद के ऊपर ही संख्याबद्ध शास्त्रों की रचना जैनाचार्यों ने ही की है। उत्तरकालीन जैनाचार्यों ने यद्यपि भग० महावीर की उसी पुनीत अनेकान्तदृष्टि के अनुसार ही शास्त्ररचना की है; पर वह मध्यस्थभाव अंशतः परपक्षखंडन में बदल गया। यद्यपि यह अवश्यक था कि प्रत्येक एकान्त में दोष दिखाकर अनेकान्त की सिद्धि की जाय, फिर भी उसका सूक्ष्म पर्यवेक्षण हमें इस नतीजे पर पहुँचाता है कि भग० महावीर की वह मानस अहिंसा ठीक-शत-प्रतिशत उसीरूपमें तो नहीं ही रही। ___ विचार विकास की चरमरेखा-भारतीय दर्शनशास्त्रों में अनेकान्त दृष्टि के आधार से वस्तु के स्वरूप के प्ररूपक जैनदर्शन को हम विचारविकास की चरमरेखा कह सकते हैं। चरमरेखा से मेरा तात्पर्य यह है कि-दो विरुद्ध वादों में तब तक शुष्कतर्कजन्य कल्पनाओं का विस्तार होता जायगा जब तक कि उनका कोई वस्तुस्पशी हल-समाधान न हो जाय । जब अनेकान्तदृष्टि उनमें सामञ्जस्य स्थापित कर देगी तब झगड़ा किस बात का और शुष्क तर्कजाल किस लिए ? तात्पर्य यह है कि जब तक वस्तुस्थिति स्पष्ट नहीं होती तब तक विवाद बराबर बढ़ता ही जाता है । जब वह वस्तु अनेकान्तदृष्टि से अत्यन्त स्पष्ट हो जायगी तब वादों का स्रोत अपने आप सूख जायगा । स्वतःसिद्ध न्यायाधीश–इसलिए हम अनेकान्त दृष्टि को न्यायाधीश के पद पर अनायास ही बैठा सकते हैं । यह दृष्टि न्यायाधीश की तरह उभयपक्ष को समुचितरूप से समझकर भी अपक्षपातिनी है। यह मौजूदा यावत् विरोधी वादरूपी मुद्दई मुद्दाहलों का फैसला करनेवाली है । यह हो सकता है कि-कदाचित् इस दृष्टि के उचित उपयोग न होने से किसी फैसले में अपील को अवसर मिल सके। पर इसके समुचित उपयोग से होनेवाले फैसले में अपील की कोई गुंजाइश नहीं रहती। उदाहरणार्थ-देवदत्त और यज्ञदत्त मामा-फुआ के भाई हैं। रामचन्द्र देवदत्त का पिता है तथा यज्ञदत्त का मामा । यज्ञदत्त और देवदत्त दोनों ही बड़े बुद्धिशाली लड़के हैं। देवदत्त जब रामचन्द्र को पिता कहता है तब यज्ञदत्त देवदत्त से लड़ता है और कहता है कि-रामचन्द्र तो मामा है त उसे पिता क्यों कहता है ? इसी तरह देवदत्त भी यज्ञदत्त से कहता है कि-वाह ! रामचन्द्र तो पिता है उसे मामा नहीं कह सकते । दोनों शास्त्रार्थ करने बैठ जाते हैं। यज्ञदत्त कहता है कि-देखो, रामचन्द्र मामा हैं, क्योंकि वे हमारी माँ के भाई हैं, हमारे बड़ेभाई भी उसे मामा ही तो कहते हैं आदि । देवदत्त कहता है-वाह ! रामचन्द्र तो पिता है, क्योंकि उसके भाई हमारे चाचा होते हैं, हमारी माँ उसे स्वामी कहती है आदि । इतना ही नहीं, दोनों में इसके फलस्वरूप हाथापाई हो जाती है । एक दूसरे का कट्टर शत्रु बन जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy