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________________ प्रस्तावना ८६ नयनिरूपण ] राग-द्वेष का भाव जाग्रत हुए बिना न रहेगा। इस मानस अहिंसा के बिना केवल बाह्य अहिंसा याचितकमंडनरूप ही है । यह तो और भी कठिन है कि-'किसी वस्तु के विषय में दो मनुष्य दो विरुद्ध धारणाएँ रखते हों, और उनका अपने अपने ढंग से समर्थन ही नहीं उसकी सिद्धि के लिए वादविवाद भी करते हों, फिर भी वे एक दूसरे के प्रति समताभाव-मानस अहिंसा रख सकें।' भग० महावीर ने इसी मानसशुद्धि के लिए, अनिर्वचनीय अखण्ड अनन्तधर्मा वस्तु के एक एक अंश को ग्रहण करके भी पूर्णता का अभिमान करने के कारण विरुद्धरूप से भासमान अनेक दृष्टियों का समन्वय करनेवाली, विचारों का वास्तविक समझौता करानेवाली, पुण्यरूपा अनेकान्तदृष्टि को सामने रखा। जिससे एक वादी इतरवादियों की दृष्टि का तत्त्व समझ कर उसका उचित अंश तक आदर करे, उसके विचारों के प्रति सहिष्णुता का परिचय दे, और राग-द्वेषविहीन हो शान्त चित्त से वस्तु के पूर्णस्वरूप तक पहुँचने की दिशा में प्रयत्न करे । समाजरचना या संघनिर्माण में तो इस तत्त्व की खास आवश्यकता थी। संघ में तो विभिन्न सम्प्रदाय एवं विचारों के चित्र विचित्र व्यक्ति दीक्षित होते थे। उनका समीकरण इस यथार्थदृष्टि के बिना कर सकना अत्यन्त कठिन था, और समन्वय किए बिना उनके चित्त की स्थिरता संभव ही नहीं थी। ऊपरी एकीकरण से तो कभी भी विस्फोट हो सकता था और इस तरह अनेकों संघ छिन्न-भिन्न हुए भी। अनेकान्तदृष्टि के मूल में यह तत्त्व है कि-वस्तु स्वरूपतः अनिर्वचनीय है, अनन्तधर्मों का एक अखण्ड पिण्ड है। वचन उसके पूर्ण स्वरूप की ओर इशारा तो कर सकते हैं, पर उसे पूर्णरूप से कह नहीं सकते। लिहाजा एक ही वस्तु को विभिन्न व्यक्ति अपने अपने दृष्टिकोणों से देखते हैं तथा उनका निरूपण करते हैं। इस लिए यदि विरोध भासित हो सकता है तो एक एक अंश को ग्रहण करके भी अपने में पूर्णता का अभिमान करनेवाली दृष्टियों में ही। जब हम एक अंश को जाननेवाली अपनी दृष्टि में पूर्णता का अभिमान कर बैंठेगें तो सहज ही द्वितीय अंश को जानकर भी पूर्णताभिमानिनी दूसरी दृष्टि उससे टकराएगी। यदि अनेकान्तदृष्टि से हमें यह मालूम हो जाय कि-ये सब दृष्टियाँ वस्तु के एक एक धर्मों को ग्रहण करनेवाली हैं, इनमें पूर्णता का अभिमान मिथ्या है तब स्वरसतः द्वितीय दृष्टि को, जो अभी तक विरुद्ध भासित होती थी, उचित स्थान एवं आदर मिल जायगा। इसी को आचार्यों ने शास्त्रीय शब्दों में कहा है कि'एकान्त वस्तुगत धर्म नहीं हैं, किन्तु बुद्धिगत है । अतः बुद्धि के शुद्ध होते ही एकान्त का नामोनिशान भी नहीं रहेगा।' इसी समन्वयात्मक दृष्टि से होनेवाला वचनव्यवहार स्याद्वाद कहलाता है। यह अनेकान्त-ग्राहिणी दृष्टि प्रमाण कही जाती है। जो दृष्टि वस्तु के एक धर्म को ग्रहण करके भी इतरधर्मग्राहिणी दृष्टियों का प्रतिक्षेप नहीं करके उन्हें उचित स्थान दे वह नय कहलाती है। इस तरह मानस अहिंसा के कार्य-कारणभूत अनेकान्तदृष्टि के निर्वाह एवं विस्तार के लिए स्याद्वाद, नयवाद, सप्तभंगी आदि विविध रूपों में For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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