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८८ अकलङ्कग्रन्थत्रय
[ग्रन्थ न करके उस पर ऐकान्तिक प्रहार कर पारस्परिक मनोमालिन्य-हिंसा को ही उत्तेजन दिया। इससे वैदिक संस्कृति तथा बौद्ध संस्कृति के बीच एक ऐसी अभेद्य दीवार खड़ी हो गई जिसने केवल दर्शनिक क्षेत्र में ही नहीं किन्तु राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र में भी दोनों को सदा के लिए आत्यन्तिक विभक्त कर दिया। इसके फलस्वरूप प्राणों की बाजी लगाकर अनेकों शास्त्रार्थ हुए तथा राजनैतिक जीवन में इस कालकूट ने प्रवेशकर अनेकों राजवंशों का सत्यानाश किया। उत्तरकाल में बौद्धाचार्यों ने मन्त्रतन्त्रों की साधना इसी हिंसा के उत्तेजन के लिए की और आखिर इसी हिंसाज्वाला से भारतवर्ष में बौद्धों का अस्तित्व खाक में मिल गया । यदि मध्यमा प्रतिपद् ने इस दार्शनिक क्षेत्र में भी अपना पुनीत प्रकाश फैलाया होता तो आज उसकी अहिंसक किरणों से दर्शनशास्त्र का कुछ दूसरा ही रूप हुआ होता, और भारतवर्ष का मध्यकालीन इतिहास सचमुच स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने लायक होता ।
जैनदृष्टि-भग० महावीर अत्यन्त कठिन तपस्या करनेवाले तपःशूर थे। इन्होंने अपनी उग्र तपस्या से कैवल्य प्राप्त किया। ये इतने दृढ़तपस्वी तथा कष्टसहिष्णु व्यक्ति थे कि इन्हें बुद्ध की तरह अपनी व्यक्तिगत तपस्या में मृदुता लाने के लिए मध्यममार्ग के उपयोग की आवश्यकता ही नहीं हुई। इनकी साधना कायिक अहिंसा के सूक्ष्मपालन के साथ ही साथ वाचनिक और खासकर मानस अहिंसा की पूर्णता की दिशा में थी। भग० महावीर पितृचेतस्क व्यक्ति थे, अतः इनका आचार के नियमों में अत्यन्त दृढ़ एवं अनुशासनप्रिय होना स्वाभाविक था। पर संघ में तो पँचमेल व्यक्ति दीक्षित होते थे। सभी तो उग्रमार्ग के द्वारा साधना करने में समर्थ नहीं हो सकते थे अतः इन्होंने अपनी अनेकान्तदृष्टि से आचार के दर्जे निश्चित कर चतुर्विधसंघ का निर्माण किया। और प्रत्येक कक्षा के योग्य आचार के नियम स्थिर कर उनके पालन कराने में ढिलाई नहीं की। भग० महावीर की अनेकान्तदृष्टि ने इस तरह आचार के क्षेत्र में सुदृढ़ संघनिर्माण करके तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में भी अपना पुनीत प्रकाश फैलाया ।
_अनेकान्तदृष्टि का अाधार-भग० महावीर ने बुद्ध की तरह आत्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों के स्वरूपनिरूपण में मौन धारण नहीं किया; किन्तु उस समय के प्रचलित वादों का समन्वय करनेवाला वस्तुस्वरूपस्पर्शी उत्तर दिया कि-आत्मा है भी, नहीं भी, नित्य भी, अनित्य भी, आदि। यह अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन उनकी मानसी अहिंसा का प्रतिफल है। अन्यथा वे बुद्ध की तरह इस चर्चा को अनुपयोगी कह सकते थे। कायिक अहिंसा के लिए जिस तरह व्यक्तिगत सम्यगाचार आवश्यक है, उसी तरह वाचनिक और खासकर मानस अहिंसा के लिए अनेकान्तदृष्टि विशेषरूप से उपासनीय है। जब तक दो विभिन्न विचारों का अनेकान्तदृष्टि से वस्तुस्थिति के आधार पर समीकरण न होगा तब तक हृदय में उनका अन्तर्द्वन्द्व चलता ही रहेगा, और उन विचारों के प्रयोजकों के प्रति
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