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________________ नयनिरूपण] प्रस्तावना बुद्ध की मध्यमप्रतिपदा केवल आचार की समाधानी के लिए उपयुक्त होती थी, वह आचार का व्यवहार्य से व्यवहार्य मार्ग ढूँड़ती थी। उसने विचार के अपरिमित क्षेत्र में अपना कार्य बहुत कम किया । जब बुद्ध ने स्वयं 'मध्यमप्रतिपदा' को विचार के क्षेत्रों में दाखिल नहीं किया तब उत्तरकालीन बौद्धाचार्यों से तो इसकी आशा ही नहीं की जा सकती थी । बुद्ध के उपदेशों में आए हुए क्षणिक, निरात्मक, विभ्रम, परमाणुपुञ्ज, विज्ञान, शून्य आदि एक एक शब्द को लेकर उत्तरकालीन बौद्धाचार्यों ने अनन्त कल्पनाजाल से क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, विभ्रमवाद, विज्ञानवाद, शून्यवाद, आदि वादों को जन्म देकर दर्शनक्षेत्र में बड़ा भारी तूफान मचा दिया। यह तूफान मामूली नहीं था, इससे वैदिक दर्शनों की चिरकालीन परम्परा भी काँप उठी थी । बुद्ध ने तो मार-काम विजय के लिए, विषय-कषायों को शान्तकर चित्त शोधन के लिए जगत् को जलबुद्बुद की तरह क्षणिक-विनाशशील कहा था । निरात्मक शब्द का प्रयोग तो इसलिए था कि-'यह जगत् आत्मस्वरूप से भिन्न है, नित्य कूटस्थ कोई आत्मा नहीं है जिसमें राग किया जाय, जगत् में आत्मा का हितकारक कुछ नहीं है' आदि समझकर जगत् से विरक्ति हो। संसार को स्वप्न की तरह विभ्रम एवं शून्य भी इसीलिए कहा था कि-उससे चित्त को हटाकर चित्त को विशुद्ध किया जाय । स्त्री आदि राग के साधन पदार्थों को एक, नित्य, स्थूल, अमुक संस्थानवाली, वस्तु समझकर उसके मुख अादि अवयवों का दर्शन-स्पर्शनकर रागद्वेषादि की अमरबेल फूलती है । यदि उन्हें स्थूल अवयवी न समझकर परमाणुओं का पुज ही समझा जायगा तो जैसे मिट्टी के ढेले में हमें राग नहीं होता उसी तरह स्त्री आदि से विरक्त होने में चित्त को मदद मिलेगी। इन्हीं पवित्र मुमुक्षुभावनाओं को सुभावित करने के लिए करुणामय बुद्ध के हृदयग्राही उपदेश होते थे। उत्तरकाल में इन मुमुक्षुभावनाओं का लक्ष्य यद्यपि वही रहा पर समर्थन का ढंग बदला। उसमें परपक्ष का जोरों से खंडन शुरू हुआ तथा बुद्धिकल्पित विकल्पजालों से बहुविध पन्थों और ग्रन्थों का निर्माण हुआ। इन बुद्धिवाग्वैभवशाली आचार्यों ने बुद्ध की उस मध्यमप्रतिपदा का इस नए क्षेत्र में जरा भी उपयोग नहीं किया। मध्यमप्रतिपदा शब्द का अपने ढंग से शाब्दिक आदर तो किया पर उसके प्राणभूत समन्वय के तत्त्व का बुरी तरह कचूमर निकाल डाला। विज्ञानवादियों ने मध्यमप्रतिपदा को विज्ञानस्वरूप कहा तो विभ्रमवादियों ने उसे विभ्रमरूप । शून्यवादियों ने तो मध्यमप्रतिपदा को शून्यता का पर्यायवाची ही लिख दिया है"मध्यमा प्रतिपत् सैव सर्वधर्मनिरात्मता । भूतकोटिश्च सैवेयं तथता सर्वशून्यता ॥" -अर्थात् सर्वशून्यता को ही सर्वधर्मनैरात्म्य तथा मध्यमा प्रतिपत् कहते हैं । यही वास्तविक तथा तथ्यरूप है । । इन अहिंसा के पुजारियों ने मध्यमप्रतिपदा के द्वारा वैदिक संस्कृति का समन्वय १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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