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अकलकपन्थत्रय
[प्रन्थ
कोमलभावनाओं के स्रोत को ही बन्द किए देता है । अतः इन दोनों के मध्य का ही मार्ग सर्वसाधारण को व्यवहार्य हो सकता है । आन्तरिक शुद्धि के लिए ही बाह्य उग्रतपस्या का उपयोग होना चाहिए, जिससे बाह्यतप ही हमारा साध्य न बन जाय । दयालु बुद्ध इस मध्यममार्ग द्वारा अपने आचार को मृदु बनाते हैं और बोधिलाभ कर जगत् में मृदुअहिंसा का सन्देश फैलाते हैं। तात्पर्य यह कि-बुद्ध ने अपने प्राचार की मृदुता के के समाधान के लिए 'मध्यमप्रतिपदा' का उपयोग किया। इस तत्त्व का उपयोग बुद्ध ने आखिर तक श्राचार के ही क्षेत्र तक सीमित रखा, उसे विचार के क्षेत्र में दाखिल करने का प्रयत्न नहीं हुआ । जब बोधिलाभ करने के बाद संघरचना का प्रश्न आया, शिष्यपरिवार दीक्षित होने लगा तथा उपदेशपरम्परा चालू हुई, तब भी बुद्ध ने किसी
आत्मादि अतीन्द्रिय पदार्थ का तात्त्विक विवेचन नहीं किया; किन्तु अपने द्वारा अनुभूत दुःखनिवृत्ति के मार्ग का ही उपदेश दिया । जब कोई शिष्य उनसे आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थ के विषय में प्रश्न करता था तो वे स्पष्ट कह देते थे कि-"आवुस ! तुम इन
आत्मा आदि को जानकर क्या करोगे ? इनके जानने से कोई फायदा नहीं है। तुम्हें तो दुःख से छूटना है, अतः दुख, समुदय-दुःख के कारण, निरोध-दुखःनिवृत्ति और मार्ग-दुःखनिवृत्ति का उपाय इन चार आर्यसत्यों को जानना चाहिए तथा आचरण कर बोधिलाभ करना चाहिए।" उन्हें बुद्धिजीवी ब्राह्मण वर्ग की तरह बैठेठाले अनन्त कल्पनाजाल रच के दर्शनशास्त्र बनाने के बजाय अहिंसा की आंशिक साधना ही श्रेयस्कर मालूम होती थी। यही कारण है कि-वे दर्शनशास्त्रीय आत्मादि पदार्थों के तत्त्वविवेचन के झगड़े को निरुपयोगी समझ कर उसमें नहीं पड़े । और उन्होंने अपनी मध्यमप्रतिपदा का उपयोग उस समय के प्रचलितवादों के समन्वय में नहीं किया । उस समय आत्मादि पदार्थोंके विषय में अनेकों वाद प्रचलित थे। कोई उसे कूटस्थ नित्य मानता था तो कोई उसे भूतविकारमात्र, कोई व्यापक कहता था तो कोई अणुरूप । पर बुद्ध इन सब वादों के खंडन-मंडन से कोई सरोकार ही न रखते थे, वे तो केवल अहिंसा की साधना की ही रट लगाए हुए थे।
पर जब कोई शिष्य अपने आचरण तथा संघ के नियमों में मृदुता लाने के लिए उनके सामने अपनी कठिनाइयाँ पेश करता था कि-"भन्ते ! आजकल वर्षाकाल है, एक संघाटक-चीवर रखने से तो वह पानी में भीग जाता है, और उससे शीत की बाधा होती है । अतः दो चीवर रखने की अनुज्ञा दी जाय । हमें बाहिर स्नान करते हुए लोक-लाज का अनुभव होता है, अतः जन्ताघर (स्नानगृह ) बनाने की अनुज्ञा दी जाय इत्यादि" तब बुद्ध का मातृहृदय अपने प्यारे बच्चों की कठिनाइयाँ सुनकर तुरन्त पसीज जाता था। वे यहाँ अपनी 'मध्यमप्रतिपदा' का उपयोग करते हैं और उनकी कठिनाइयाँ हल करने के लिए उन्हें अनुज्ञा दे देते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि
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