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प्रस्तावना
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नयनिरूपण ] $ ३. नयनिरूपण
जैनदृष्टि का आधार और स्थान-भारतीय संस्कृति मुख्यतः दो भागों में बाँटी जा सकती है-एक वैदिक संस्कृति और दूसरी उसके मुकाबिले में खड़ी हुई श्रमणसंकृति । वैदिकसंस्कृति के आधारभूत वेद को प्रमाण माननेवाले न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, पूर्वमीमांसा तथा औपनिषद आदि दर्शन हैं । श्रमणसंस्कृति के शिलाधार वेदकी प्रमाणता का विरोध करनेवाले बौद्ध और जैनदर्शन हैं । वैदिकदर्शन तथा वैदिकसंस्कृति के प्राणप्रतिष्ठान में विचारों की प्रधानता है । श्रवणसंस्कृति एवं अवैदिक दर्शनों की उद्भूति आचारशोधन के प्रामुख्य से हुई है । सभी दर्शनों का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है, और गौण या मुख्यरूपसे तत्त्वज्ञान को मोक्ष का साधन भी सबने माना ही है । वैदिक संस्कृति तथा वैदिकदर्शनों की प्राणप्रतिष्ठा, संवर्द्धन एवं प्रौढ़ीकरण में बुद्धिजीवी ब्राह्मणवर्ग ने पुश्तैनी प्रयत्न किया है जो आजतक न्यूनाधिक रूप में चालू है । यही कारण है कि वैदिकदर्शन का कोषागार, उनकी सूक्ष्मता, तलस्पर्शिता, भावग्राहिता एवं पराकाष्ठा को प्राप्त कल्पनाओं का कोटिक्रम अपनी सानी कम रखता है । परम्पसगत-बुद्धिजीवित्वशाली ब्राह्मणवर्ग ने अपनी सारी शक्ति कल्पनाजाल का विकास करके वेदप्रामाण्य के समर्थन में लगाई और वैदिकक्रियाकाण्डों के द्वारा गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त के जीवन के प्रत्येकक्षण को इतना ओतप्रोत कर दिया जिससे मुकाबिले में खड़ी होनेवाली बौद्ध और जैनसंस्कृति भी पीछे जाकर इन क्रियाकाण्डों से अंशतः पराभूत हो गई।
श्रमणसंस्कृति वैदिक क्रियाकाण्ड, खासकर धर्म के नाम पर होने वाले अजामेध, अश्वमेध, नरमेध आदि हिंसाकाण्ड का तात्त्विक एवं क्रियात्मक विरोध करने के लिए उद्भूत हुई, और उसने इस क्षेत्र में पर्याप्त सफलता भी पाई । श्रमणसंस्कृति का आधार पूर्णरूपसे अहिंसा रही है । अहिंसा का वास्तविक रूप तो सचमुच आचारगत ही है । अहिंसा का विचार तो वैदिकदर्शनों ने भी काफी किया है पर विशिष्ट अपवादों के साथ । श्रवणसंस्कृति अहिंसा का सक्रिय रूप थी। इस अहिंसा की साधना तथा पूर्णता के लिए ही इसमें तत्त्वज्ञान का उपयोग हुआ, जब कि वैदिक संस्कृति में तत्त्वज्ञान साध्यरूपमें रहा है।
बौद्धदृष्टि-बुद्ध अहिंसा की साधना के लिए प्रारम्भ में छह वर्ष तक कठोर तपस्या करते हैं । जब उनका भावुक चित्त तपस्या की उग्रता से ऊब जाता है, तब वे विचार करते हैं कि-इतनी दीर्घतपस्या के बाद भी मुझे बोधिलाभ क्यों नहीं हुआ ? यहीं उनकी तीक्ष्णदृष्टि 'मध्यम प्रतिपदा' को पकड़ लेती है। वे निश्चय करते हैं कि-यदि एक ओर वैदिकी हिंसा तथा विषय भोग आदिके द्वारा शरीर के पोषण का बोलवाला है तो इस ओर भी अव्यवहार्य अहिंसा तथा भीषण कायक्लेशके द्वारा होनेवाला शरीर का शोषण हृदय की
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