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प्रकार की धार्मिक वृत्ति में दृढ़ श्रद्धाशील बना था । हेमचन्द्र के प्रति उसकी अन्य भक्ति थी। इसके कई कारण थे-प्रवासी दशा में हेमचन्द्र की प्रेरणा से खम्भात के मन्त्री उदयनकी सहायता मिलना, आचार्य द्वारा भविष्य में उसे राज्यगद्दी मिलने का विश्वास दिलाना, निराश जीवन को आशांकित बनाना और राज्यप्राप्ति के पश्चात् भी उसको समय समय पर अपनी विद्या शक्ति के बल से आश्चर्य चकित करना । इस प्रकार के प्रभाव को लेकर वह हेमचन्द्र का अनन्य अनुरागी हो गया था । ज्यों ज्यों आचार्य से उसका विशेष मिलना जुलना होता रहा
और उनके चारित्र, ज्ञान, तप, आदि के बल से उसका विशिष्ट परिचय होता गया त्यों त्यों वह उनका श्रद्धालु शिष्य होता गया । जब उसे यह विश्वास हो गया कि आचार्य का जीवनध्येय केवल परोपकार वृत्ति है और इतने बड़े सम्राट से भी, दो सूकी रोटी प्राप्त करने तक की भी इनकी अभिलाषा नहीं है, तब तो उसने अपने सम्पूर्ण आत्मा को आचार्य के चरणों में समर्पित कर दिया और इस महर्षि के आदेश से स्वयं भी 'राजर्षि' बन गया ।
राजनीतिनिपुणता यद्यपि कुमारपाल बड़ा पराक्रमी पुरुष था तो भी मिथ्या महत्त्वाकांक्षी न था । उसका साम्राज्य विस्तार सहज ही उतना हो गया था । साम्राज्य विषय में उसकी नीति आक्रमणात्मक नहीं बल्कि रक्षणात्मक थी । परराज्यों पर उसे परिस्थितियों से बाध्य होकर ही चढ़ाई करनी पड़ी । वह महत्त्वाकांक्षी न था तो भी स्वाभिमानी तो था ही । जहाँ आत्मसम्मान को थोड़ी सी भी ठेस पहुँचती थी तो वह उसे सहन नही कर सकता था और राजनीति का भी पूर्ण अनुभवी था । जिस मनुष्य के विशेष प्रयत्न से उसे राजगद्दी प्राप्त करने का सौभाग्य मिला था
और जो उसका एक निकट का सगा बना हुआ था, वैसे कान्हडदेव को भी, जब अपनी पूर्वावस्था को उपलक्ष्य कर उपहास करता देखा तब उसका तत्काल गात्रभङ्ग करा कर उसे निर्जीव बना दिया और उसी प्रकार दूसरे काँटों का भी तत्काल जीवित नाश करवा दिया । पूर्वावस्था में भले ही वह रङ्क की तरह भटका हो परन्तु अब भाग्य ने उसे राजा बनाया है और वह भाग्यदत्त राज्य का रक्षण अपनी शमशेर के बल से करने में समर्थ है, यह स्वाभिमान उसके पौरुष में परिपूर्ण था और इस अभिमान का प्रभाव बताने के लिए उसने अपने आप्तजनों को भी नष्ट करने में देर नहीं की। इसके विपरीत जिस साजण कुम्हार ने एक समय उसे काँटों के ढेर में छिपा कर सिद्धराज के सैनिकों से उसकी रक्षा की थी, राज्य मिलते ही उसे अपनी सेवा में बुलाकर उसके उपकार के बदले सात सौ गाँव के पट्टेवाले चितौड़ की वार्षिक आमदानी उसके लिए निश्चित कर दी । उसका ऐसा बर्ताव देखकर अन्दर के विरोधी थर्रा गये और सारा विरोधभाव छोड़कर उसकी अनन्य सेवा करने लगे । ऐसे विरोधियों में चाहड़ नामक एक कुलीन राजकुमार अग्रणी था जो राज्य की सेना में बहुत माना जाता था और जिसे सिद्धराज ने अपने पुत्र की तरह पाला पोषा था । वह कुमारपाल का सान्निध्य
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