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छोड़कर शाकम्भरी के गर्विष्ठ राजा अर्णोराज की सेवा में चला गया और उसे कुमारपाल के विरुद्ध खड़ा करके उसके राज्य की जड़ को उखाड़ ने के लिए गुजरात की सीमा पर लड़ाई
मोर्चे खड़े किये । कुमारपाल के भविष्य के लिए यह अत्यन्त विषम परिस्थिति थी । उसके सामन्तों में से बहुत से, ऊपर से तो उसके पक्ष में थे परन्तु अन्दर से विपक्ष में थे । चाहड़ राजकुमार की चालाकी से मालवा का स्वामी बल्लालदेव भी दूसरी तरफ से आक्रमण करने के लिए तैयार हुआ था और उससे कुमारपाल की स्थिति सरौते के बीच रही हुई सुपारी के समान हो गई । परन्तु कुमारपाल के भाग्यबल से उसके वे सभी राज्यभक्त कर्मचारी, जिनकी नियुक्ति उसने राज्य सँभालते ही की थी, वे सभी समर्थ और विश्वासी निकले । उनकी कुशलता से गुजरात की जनता नये राजा की ओर पूर्ण सहानुभूति रखने लगी और सैनिकवर्ग भी पराक्रमी और रणवीर राजा की छत्रछाया में उन्नति की आशा से उत्साहित हुआ । कुमारपाल ने अपने विश्वासी सेनाध्यक्ष काकभटके सेनापतित्व में चुने हुए सैनिकों की एक फौज मालवा में बल्लाल के विरुद्ध भेज दी और स्वयं अपने सारे सामन्तों को लेकर मारवाड़ के अर्णोराज का सामना करने के लिए चल पड़ा । सामन्तों में मुख्य चन्द्रावती का महामण्डलेश्वर विक्रमसिंह था । उसने आबू के पास ही कुमारपाल की हत्या करने का षडयन्त्र को तुरन्त पहचान लिया और वहाँ नहीं ठहरता हुआ सीधा शत्रु की सेना की ओर चला गया । लेकिन समराङ्गण में भी उसने अपने कुछ सामन्तों और सेनिकों को शत्रुपक्ष की ओर मिले हुए देखा । कुमारपाल ने अपने भाग्य का पासा पलटने के लिए सामयिक कुशलता का उपयोग कर एक ही झपाटे में शत्रु के ऊपर आक्रमण कर दिया और पहले ही वार में उसे आहत कर शरणागत होने के लिए बाध्य बनाया । बल्लाल के ऊपर चढ़ाई करनेवाले सेनापति ने भी उतनी ही जल्दी शत्रु का शिरच्छेद करके कुमारपाल की विजयपताका उज्जयिनी के राजमहल पर फहरा दी ।
उस समय के गुजरात के पड़ोसी और प्रतिस्पर्धी मारवाड़ और मालवा के दोनों महाराज्यों को सिद्धराज जयसिंह ने ही गुर्जरपताका के नीचे ला दिया था, परन्तु उसकी मृत्यु के पश्चात् गद्दी पर आनेवाले नवीन राजा कुमारपाल के वास्तविक स्वरूप से अज्ञात रहनेवाले इन राज्यों ने गुजरात की पताका को उखाड़ फेंक देने का प्रयत्न किया और इस प्रयत्न को कुमारपाल ने अपने पराक्रम से निष्फल कर दिया । परन्तु उसके भाग्य में तो और भी अधिक सफलता लिखी हुई थी । गुजरात की दक्षिण की सीमा पर कोंकण का राज्य था । उसकी राजधानी बम्बई के पास ठाणापत्तन थी और वहाँ शिलाहार वंशी राजा राज करते थे । इस कोंकण राज्य के दूसरी तरफ की दक्षिण सीमा पर कर्णाटक के कदम्ब वंशियों का राज्य था जिनकी राजधानी गोपाक पट्टन (वर्तमान पोर्तुगीज बन्दर, गोवा) थी । सिद्धराज की माता मयणल्ला देवी इस राजवंश की कन्या थी अतः कर्णाटक और गुजरात के बीच गाढ़ा सम्बन्ध था । इन दो सम्बन्धी राज्यों के बीच में आनेवाला कोंकण का राज्य गुजरात के साथ युद्ध नहीं कर सकता था । अतः सिद्धराज के समय में तो उसका गुजरात के साथ मैत्रीभाव ही रहा
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