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________________ ७० वह हेमचन्द्राचार्य के चरण वन्दन करता और चन्दन, कपूर एवं स्वर्ण कमलों द्वारा उनकी पूजा करता । उनके मुख से यथावसर धर्मबोध सुनकर वहाँ से राजमहल की ओर लौट जाता था । लौटते समय वह हाथी पर न चढ़कर घोड़े पर सवार होता था । और अपने स्थान पर पहुँचता था । तदनन्तर याचकों आदि को यथायोग्य दान देकर भोजन करता था । उसका भोजन बहुत ही सात्त्विक होता था । जैनधर्म के अनुसार वह बहुत बार एकाशन आदि तप करता था और हरे शाकादि स्वादिष्ट पदार्थों का त्याग करता था । भोजनोपरान्त वह आरामगृह में बैठता था और वहाँ प्रसंगवश विद्वानों के साथ शास्त्र और तत्त्व सम्बन्धी चर्चा करता था । तीसरे प्रहर वह अपने शाही ठाठ के साथ राजमहलों से शहर के राजमार्गों में होता हुआ बाहर घड़ी दो घड़ी उद्यान क्रीड़ा करने जाता था । उस उद्यान को संस्कृत में राजवाटिका, गुजराती में रायवाड़ी और राजस्थानी भाषा में रेवाड़ी, कहते हैं । संध्या समय वह वहाँ से राजमहल की ओर लौटता और महलों में आ कर देवकी आरती आदि का संध्याकर्म करता । तत्पश्चात् एक पाट पर बैठकर वाराङ्गनाओं के नृत्य और गान सुनता था । स्तुतिपाठक और चारणलोग उसकी खूब स्तुति करते थे । वहाँ से वह सर्वावसर नामक मुख्य सभा - मण्डप में आकर सिंहासन पर बैठता था । सभी राजवर्गीय और प्रजावर्गीय सभाजन उपस्थित होते थे । राजा और राज्य के कल्याण के लिए राजपुरोहित द्वारा मन्त्र पाठ हो जाने पर चामर धारण करनेवाली स्त्रियाँ आसपास चामरादि उपकरण धारण करके खड़ी हो जाती थी । तदुपरान्त मङ्गलवाद्य बजते थे और दूसरी स्त्रियाँ अपने अपने काम के लिए उपस्थित होतीं थीं । तत्पश्चात् वारांगनाएँ राजा के वारणे लेतीं थीं और दूसरे सामन्त एवं अधीन राजा हाथ जोड़ कर खड़े रहते थे । राजा के सन्मुख राज्य के दूसरे महाजन - जैसे श्रेष्ठिवर्ग, व्यापारी, प्रधान ग्रामजन आदि आ कर बैठते थे । परराज्यों के जो दूत आते थे वे दूरी पर सबसे पीछे बैठते थे । नीराजना विधि पूरी होने के पश्चात् वारांगनाएँ एक तरफ बैठ जातीं थीं और सम्पूर्ण सभा एकाग्र हो राज्य कार्य की प्रवृत्ति देखती थीं। राज्य कार्य में सबसे पहले सान्दिविग्रहिक अर्थात् विदेश मन्त्री (Foreign minister) परराज्यों के सम्बन्धों की कार्यवाही निवेदन करता था । किस राजा के साथ क्या सन्धि हुई है, कौन से राजा ने क्या इष्ट, अनिष्ट किया है, किसके ऊपर फौजें भेजीं है, किन फौजों ने क्या किया है, कौन शत्रु मित्र होता है - इत्यादि परराज्यों के साथ सम्बन्ध रखनेवाली सब बातें निवेदन करता था । राजा यह सब सुनकर उस सम्बन्ध में उपयुक्त विचार व्यक्त करता था । तत्पश्चात् दूसरी सारी राज्य कार्यवाही होती थी । उसके सुनकर भी यथायोग्य विचार करता और अन्त में सभा को विसर्जित कर यथावसर शयनागार में जाकर शय्याधीन होता था । जैनधर्म के व्रतों का स्वीकार करने पश्चात् बह बहुत बार ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता था और पूर्ण रूप से एकपत्नीव्रतधारी था । इस विषय में वह पहले से ही बहुत सदाचारी था । इसी कारण तदाश्रित समस्त राजवर्गीय जनों में उसका बहुत प्रभाव था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
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