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कुमारपाल ने इस प्रकार के नैतिक कार्य करने के उपरान्त जैन धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए जगह जगह सैकड़ों मन्दिरों का निर्माण कराया था । शत्रुञ्जय और गिरनार जैसे जैन तीर्थों की यात्रा बड़े शाही ठाठ के साथ संघ निकालकर की थी । वह राजधानी में प्रति वर्ष बड़े बड़े जैन महोत्सवों का भी आयोजन किया करता था और दूसरे शहरों में भी महोत्सवों के आयोजन की प्रेरणा दिया करता था ।
राजर्षिकी दिनचर्या
वह राजकाज को नियमित रूप से देखता रहता था । उसकी दिनचर्या व्यवस्थित थी । विलास या व्यसन का उसके जीवन में कोई स्थान न था । वह बहुत दयालु और न्यायपरायण था । अन्तर से वास्तव में मुमुक्षु था और ऐहिक कामनाओं से उसका मन उपशान्त हो गया था । राजधर्म समझकर वह राज्य की सब प्रवृत्तियाँ देखता था लेकिन उनमें उसकी आसक्ति न थी । उसकी दिनचर्या के सम्बन्ध में हेमचन्द्राचार्य ने 'प्राकृतद्वयाश्रय' काव्य में और सोमप्रभाचार्य ने ‘कुमारपाल प्रतिबोध' नामक ग्रन्थ में जो बताया है उससे पता लगता है किवह प्रात:काल सूर्योदय के पहले ही शय्या त्याग करके सबसे प्रथम जैनधर्म में मंगलभूत अरिहंत, सिद्ध, आचार्यादि पाँच नमस्कार पदों का स्मरण करता था । तदुपरान्त शरीरशुद्धि की क्रिया वगैरह से निवृत्त होकर अपने राजमहल के गृहचैत्य में पुष्पादि से जिन प्रतिमा की पूजा करके स्तवन के साथ पञ्चाङ्ग नमस्कार करता था वहाँ से निकलकर वह तिलकावसर नामक मण्डप में जा कर सुकोमल गद्दी पर बैठता था । वहाँ उसके सामने दूसरे सामंत राजा आ कर बैठते थे और पास में चामर धारण किये हुए वारांगनाएँ खड़ी रहती थीं। उसी समय राजपुरोहित या दूसरे ब्राह्मण आ कर आशीर्वाद देते थे और उसके मस्तक पर चन्दन का तिलक करते थे । तत्पश्चात् ब्राह्मणों से तिथिवाचन सुनकर उन्हें दान देकर बिदा करता था और तुरन्त ही फर्यादें सुनता था । यह कार्य समाप्त कर वह राजमहलों की ओर जाता और वहाँ अपनी माता और माता के समान ही राजवृद्धाओं को नमस्कार करके आशीर्वाद प्राप्त करता था । तदनन्तर फल-पूल आदि से राजलक्ष्मी की पूजा करवाता था और दूसरे देवी देवताओं की जो प्रतिमाएँ राजमहल में थी, उनकी स्तुति वगैरह कराता था । वृद्ध स्त्रियों को सहायतार्थ धन बाँटता था । उसके बाद व्यायाम शाला में जाकर व्यायाम से निपट कर स्नान करके वस्त्रालंकार धारण करता था और फिर राजमहल के बाहर के भाग में आता था । वहाँ पर पहले से ही सवारी के लिए सुसज्जित राजगज पर आरूढ़ हो, समस्त सामंत, मन्त्री आदि के परिवार सहित, अपने पिता के पुण्यनामांकित 'त्रिभुवनपालविहार' नामक महाविशाल और अतिभव्य जैनमन्दिर में जिसको उसने करोड़ों रुपये खर्च करके बनवाया था, दर्शन और पूजा करने जाता था । जिस समय वह जिनमूर्ति का अभिषेक कराता था उस समय रङ्गमण्डप में वारांगनाएँ आडम्बर के साथ नृत्य और गान करतीं थीं । जिनमन्दिर में पूजावधि समाप्त करके
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