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________________ ६८ तरह मालूम थी । ऐसे दुष्परिणामों से प्रजा को बचाने के लिए उसने द्यूतनिषेध को राजाज्ञा जाहिर की थी । वेश्याव्यसन की उपेक्षा इस प्रकार जिस राजनीति को कुमारपाल ने चलाया उसमें एक मुख्य बात नजर नहीं आती, वह है वेश्याव्यसन के विषय में । कुमारपाल को इसकी कल्पना तो होनी ही चाहिए । मद्य और द्यूत की भाँति यह व्यसन भी प्रजा हित की दृष्टि से उतना ही अनिष्टकारी है और धर्मशास्त्रों में भी इसकी अनिष्टता भली भाँति वर्णित है । कुमारपाल ने, चाहे कुछ भी कारण हो, इस व्यसन की उपेक्षा की थी । मोहराजपराजय नाटक में इस विषय में भी एक निर्देश मिलता है । उपरोक्त प्रकार से जब कुमारपाल ने सब दुर्व्यसनों का बहिष्कार कराया तब वेश्याव्यसन को भी भय लगा, परन्तु राजा उसकी उपेक्षा करता हुआ कहता है कि'वेश्याव्यसनं तु वराकमुपेक्षणीयम् । न ते किञ्चिद् गतेन स्थितेन वा' - अर्थात् बेचारे वेश्याव्सन की तो उपेक्षा करनी चाहिए इसके रहने और जाने में कुछ भी नहीं है । यह निर्देश गुजरात की उस समय की वेश्याविषयक स्थिति पर प्रकार डालता है । उस समय समाज में, दूसरे व्यसनों की भाँति, वेश्या-व्यसन बहुत निद्य नहीं समझा जाता था । समाज के शिष्ट कहलाने वाले वर्ग के साथ वेश्याओं का बहुत सम्बन्ध रहता था । उसी प्रकार वेश्याओं की स्थिति भी आज की भाँति हलकी और व्यभिचार पोषक न थी । वेश्याओं का स्थान समाज में एक प्रकार से उच्च समझा जाता था । राज दरबार में हमेशा उनकी उपस्थिति रहती थी । देवमन्दिरों में भी नृत्य संगीत आदि के लिए उनकी उपस्थिति आवश्यक समझी जाती थी । व्यक्तिगत और सार्वजनिक महोत्सवों में भी उनका स्थान पहला रहता था । कला और कुशलता की वे शिक्षिकाएँ मानी जाती थीं । लक्ष्मीदेवी के कृपापात्र राजपुत्रादि उनसे कलाका अभ्यास करते थे। अनेक राजा ऐसी कलाधाम वेश्याओं को अपनी प्रियतमा भी बनाते थे । स्वयं कुमारपाल का पितृकुल भी, ऐसी ही एक वेश्यावर्ग में से अवतीर्ण कलानिधि राजरानी की संतति था । उसके दरबार में भी यह वेश्यावर्ग काफी परिणाम में और अच्छी स्थिति में विद्यमान था । इसलिए उनकी प्रवृत्तियों के विषय में किसी भी प्रकार का विधि-निषेध करने का कुछ भी विचार नहीं किया होगा । इस प्रकार कुमारपाल ने जैनधर्म में दीक्षित होकर जैन सिद्धान्तों के अनुसार कई स्थूल धार्मिक और नैतिक नियम जाहिर किये थे और प्रजा द्वारा इन नियमों का पालन कराने के लिए पूरी सावधानी रखी थी । हेमचन्द्र आचार्य का कहना है कि उसके अहिंसा के आदेश का पालन करने के लिए अन्त्यज जन भी जू माकड़ आदि तक की हत्या नहीं करते थे । इस कथन में भले ही कुछ अतिशयोक्ति होगी, लेकिन राजा इस विषय में पूरा-पूरा सतर्क था इसमें कोई शंका नहीं है । प्रबन्धों में जो एक यूकाविहार मन्दिर बन्धवाने का इतिहास मिलता है उससे इस बात की पुष्टि होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
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