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________________ ६७ उसके कुल में भी यह वस्तु त्याज्य समझी जाती थी । हेमचन्द्र के योगशास्त्र में आये हुए एक उल्लेख से प्रतीत होता है कि चौलुक्य कुल में मद्यपान ब्राह्मण जाति की तरह ही निन्द्य था । चौलुक्यों के पुरोगामी चावड़े पूरी तरह से मद्यपायी थे । स्वयं अणहिलपुर का संस्थापक वनराज भी मद्यप्रिय था । उसके पीछे उसके द्वारा निर्माण कराये गये अणहिलपुर के राजमहलों में मदिरा देवी का खूब सत्कार होता था और उसकी यह परिणाम हुआ कि यादवों की भाँति चावड़ा वंश का भी नाश हो गया । यह बात मोहराजपराजय नाटक के कर्त्ता मन्त्री यशपाल अप्रकट रूप से बताते हैं । अन्तिम चावड़ा राजा सामंत सिंह का राजसिंहासन किस भाँति चौलुक्य वंश के प्रतिष्ठाता मूलराज के हाथ में आया, उसका सारा विवरण प्रबन्धचिन्तामणि में दिया है। उससे भी चावड़ों के मद्यपान की बात स्पष्ट रूप से ज्ञात होती है । जुए का निषेध मद्यनिषेध के साथ जुआ खेलने की मनाही भी कुमारपाल ने उतनी ही सख्ती से की थी। द्यूत को लेकर पाण्डव जैसों को भी कितना कष्ट भोगना पड़ा था और उसी प्रकार नल जैसे राजा पर कैसी आपत्ति आई थी ये सब कथाएँ कुमारपाल ने हेमचन्द्रसूरि से कई बार सुनी थीं और स्वयं ने भी आसपास के लोगों में इसका कुपरिणाम देखा था । इसलिए उसने द्यूतक्रीड़ा पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया । यश: पाल मन्त्री के कथन से प्रतीत होता है कि उस समय लोगों में जुए का दुर्व्यसन अत्यधिक फैला हुआ था। बड़े बड़े राजपुरुष भी इस व्यसन में फंसे हुए थे । ऐसे राजपुरुषों में से कुछ लोगों का स्पष्ट निर्देश भी किया गया है, जो बहुत ही उपयोगी है । इस निर्देश के अनुसार मेवाड़ का राजकुमार, सोरठ के राजा का भाई, चन्द्रावती का अधिपति, नाडोल के राजा का दौहित्र, गोधरा के राजा का भतीजा, धारा के राजा का भानजा, शाकंभरी के राजा का मामा, कोंकण के राजा का सौतेला भाई, कच्छके राजा का साला, मारवाड़ के राजा का दौहित्र और खुद चालुक्य नृपति अर्थात् कुमारपाल का कोई पितृव्य आदि जैसे व्यक्ति थे । इस उल्लेख से प्रतीत होता है कि अणहिलपुर के सम्राट् की सेवा में रहनेवाले सारे अधीन राजाओं के प्रतिनिधी इस व्यसन में पूरी तरह आसक्त थे । निकम्मे बैठे हुए इन लोगों को दूसरा और कोई क्या काम हो सकता था । प्रतिदिन नियत किये हुए दो तीन घण्टे राजा के दरबार में वे उपस्थित हों और अपनी हाजिरी दे दें । उसके उपरान्त शांति के समय में ऐसे राज - प्रतिनिधियों को कोई काम न था । इसलिए उनका समय ऐसे ही दुर्व्यसनों में खर्च होता था । आज भी ऐसे लोगों में ऐसी ही स्थिति हम पाते हैं । इसी द्यूत को लेकर जुआरियों में आपस में अनेक प्रकार के भयंकर कलह होते थे, मारामारी होती थी और नाना प्रकार के अश्लील कार्य होते थे । कुमारपाल को यह वस्तुस्थिति अच्छी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
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