SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न यन्मुक्तं पूर्वै रघु-नहुष-नाभाक-भरतप्रभृत्युर्वीनाथैः कृतयुगकृतोत्पत्तिभिरपि । विमुञ्चन् सन्तोषात् तदपि रुदतीवित्तमधुना; कुमारक्ष्मापाल ! त्वमसि महतां मस्तकमणिः ॥ अपुत्राणां धनं गृह्णन् पुत्रो भवति पार्थिवः । त्वं तु सन्तोषतो मुञ्चन् सत्यं राजपितामहः ॥ गुजरात का वह सर्वोपरि आदर्श राजा था । वह जैसा वीर, नीतिनिपुण और दुर्धर्ष था वैसा ही संयमी, धर्मपरायण और साम्य भी था । उसमें अनुभव की विशालता के साथ साथ गम्भीर तात्त्विक बुद्धि भी कम न थी । वह त्यागी के साथ मितव्ययी और पराक्रमी के साथ क्षमावान् भी था । सिद्धराज और कुमारपाल गुजरात के साम्राज्य के दो ही सर्वोत्कृष्ट प्रभुत्वशाली राजा हुए-सिद्धराज और कुमारपाल । दोनों के पराक्रम और कौशल से गुजरात का गौरव चरम सीमा पर पहुँच गया था। प्रबन्धकारों का कहना है कि सिद्धराज में ९८ गुण थे और २ दोष थे और कुमारपाल में थे ९८ दोष और २ गुण। ऐसा होने पर भी कुमारपाल श्रेष्ठ था । सिद्धराज ने गुजरात के नागरिकों के लिए महास्थान बनाये तो कुमारपाल ने उनका संरक्षण करने के लिए दुर्गों का निर्माण कराया । सिद्धराज ने गुजरात के पराक्रम का गञ्जन करनेवाली महायात्राएँ की तो कुमारपाल ने उन यात्राओं की चिरस्मृति के लिए महाप्रशस्तियों की रचना करवाई । सिद्धराज ने गुजरात के गौरवधाम गिरनार के ऊपर महातीर्थ की स्थापना की तो कुमारपाल ने गुजरात के आबाल वृद्धों को यात्रा सुलभ बनाने के लिए उस पर सीढियों का निर्माण कराया । सिद्धराज ने अगर गुजरात की गुरुता के महालयों का निर्माण किया तो कुमारपाल ने उन महालयों पर स्वर्णकलश और ध्वजदण्ड चढ़ा कर उन्हें सुप्रतिष्ठित किया । कुमारपाल गुजरात की गरिमा का सर्वोपरि शिखर था । उसके समय में गुजरातवासी विद्या और विभुता में, शौर्य और सामर्थ्य में, समृद्धि और सदाचार में, धर्म और कर्म में, उत्कृष्टता पर पहुँच गये थे । उसके राज्य में प्रकृतिकातर वैश्य भी महान् सेनापति हुए, द्रव्यलोलुप वणिग्जन भी महाकवि हुए और ईर्षापरायण ब्राह्मण तथा निन्दापरायण श्रमण भी परस्पर मित्र हुए । व्यसनासक्त क्षत्रिय भी संयमी साधक बने और हीनाचारी शूद्र धर्मशील बने । धर्मसहिष्णुता उत्साहप्रवर्तक धर्मपरिवर्तन के पश्चात् भी धर्मसहिष्णुता जितनी उसके राज्य में थी वैसी किसी के राज्य में दृष्टिगोचर नहीं हुई । कदाचित् भारत के प्राचीन इतिहास में वह एक ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy