SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहला और अन्तिम उदाहरण होगा कि हेमचन्द्र जैसा जैन धर्म का महान् आचार्य शिव मन्दिर में श्रद्धालु शैव की तरह यत्र तत्र समये यथा तथा योऽपि सोऽस्याभिधया यया तया । वीतदोषकलुषः स चेद् भवान् एक एव भगवन्नमोऽस्तु ते ॥ ऐसी अद्भुत कल्पना और अनुपम रचना द्वारा शिव की स्तुति करता है गंड बृहस्पति जैसा महान् शैव मठाधीश जैनाचार्य के चरणों में वन्दन करके चतुर्मासीमासीत्तव पदयुगं नाथ ! निकषा, कषायप्रध्वंसाद्विकृतिपरिहारव्रतमिदम् । इदानीमुद्भिद्यन्निजचरणनिर्लोठितकले जलक्लिनैरन्नैर्मुनितिलक ! वृत्तिर्भवतु मे ॥ ऐसी स्तुति द्वारा एक सुशिष्य की भाँति अनुग्रह की याचना करता है । इतिहास के सैकड़ों प्रबन्धों में खोजने पर वह एक ही राजा ऐसा मिलता है जो कुलपरम्पराप्राप्त 'उमापतिवरलब्धप्रौढप्रताप' बिरुद में अभिमान करता हुआ भी स्वरुचिस्वीकृत 'परमार्हत' बिरुद से अपने को कृतकृत्य मानता है । जिस आदरभाव से वह सोमेश्वर के पुण्यधाम का जीर्णोद्धार करता है उसी आदर से उसके पड़ोस में पार्श्वनाथ के जैन चैत्य की भी स्थापना करता है । कुमारपाल गुजरात की गर्वोन्नत राजधानी अणहिलपुर में शम्भुनाथ के निवासार्थ 'कुमारपालेश्वर' और पार्श्वनाथ के लिए 'कुमारविहार' नामक दो मन्दिरों का निर्माण एक दूसरे के समीप ही करता है। इससे बढ़कर धार्मिक सहिष्णुता का उदाहरण मिलना कठिन कुमारपाल स्वभाव से ही धार्मिकवृत्तिवाला था, उससे उसमें दया, करुणा, परोपकार, नीति, सदाचार और संयम की वृत्तियों का विकास उच्च प्रकार का हुआ था । उसमें ये बहुत से गुण पैतृक ही होने चाहिए । उसके प्रपिता के पिता क्षेमराज ने-जो पराक्रमी भीमदेव का ज्येष्ठ पुत्र और सिद्धराज के, भोगपरायण पिता कर्ण का ज्येष्ठ भ्राता था,-पिता द्वारा दी गई राजगद्दी का अस्वीकार कर अपने छोटे भाई कर्म को राज्य दे दिया और स्वयं मंडूकेश्वर तीर्थ में जा कर तपस्वी के रूप में शंकर की उपासना में लीन रहते हुए जीवन सफल बनाया । उसका पुत्र देवप्रसाद भी राजकाज की झंझटों से दूर रहकर स्वयं पिता का अनुकरण करता रहा और जिस समय विलासी कर्णका असमय में अवसान हुआ तो वह इतना उद्विग्न हो उठा कि सजीव देहसे चिता में प्रवेश कर गया । कुमारपाल का पिता त्रिभुवनपाल भी एक सदाचारी और धर्मपरायण क्षत्रिय था । सिद्धराज के लिए वह अत्यन्त आदरणीय पुरुष था । उसके नीतिपरायण जीवन का प्रभाव सिद्धराज के स्वच्छन्द जीवन पर अंकुश का काम करता था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy