SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५९ पर सारा माल बेचकर ४ करोड रुपये का अन्य माल प्राप्त किया । वहाँ से स्वदेश आते समय रास्ते में एक भयंकर तूफान आया और उससे सब नावें नष्ट-भ्रष्ट हो गई और कुछ इधर-उधर भटकती भरुच बन्दरगाह पर पहुँची । कुबेर का क्या हाल हुआ यह अभी तक पता नहीं लगा इसीलिए यह ऐसा प्रसंग उपस्थित हुआ है ।' राजा यह सब सुनकर सहानुभूति पूर्ण स्वर से कुबेर की माता को आश्वासन देता है - ' माता ! इस तरह अविवेकी की तरह शोक से विह्वल मत बनो ! आकीटाद्यावदिन्द्रं मरणमसुमतां निश्चितं बान्धवानां, सम्बन्धश्चैकवृक्षोषितबहुविहगव्यूहसांगत्यतुल्यः । प्रत्यावृत्तिर्मृतस्योपलतलनिहितप्लुष्टबीजप्ररोह प्रायः प्राप्येत शोकात् तदयमकुशलैः क्लेशमात्मा मुधैव ॥ माता उत्तर देती है—'पुत्र ! सब समझती हूँ, लेकिन पुत्र का मृत्युशोक सब विस्मरण करा देता है ।' राजा कहता है कि- 'माता ! मैं भी तुम्हारा ही पुत्र हूँ इसलिए शोक करना अच्छा नहीं है।' इतने में राज्य के नौकरों ने कुबेर के घर का सारा धन इकट्ठा करके राजा के सामने ढेर लगा दिया । राजा उसका निषेध करता हुआ महाजनों से कहता है कि - " मैं आज से मृतजनों का धन राजभण्डार में लेने का निषेध करता हूँ । यह कितनी अधम नीति है कि जो मनुष्य अपुत्र मर जाय उसके धन हडपने की इच्छा रखनेवाले राजा उसके पुत्रत्व को प्राप्त करने की इच्छा करते हैं।' राजा वहाँ से महल में आकर मन्त्रियों द्वारा सारे शहर में घोषणा करवाता है कि निःशूकैः शक्तिं न यन्नृपतिभिस्त्यक्तुं क्वचित् प्राक्तनैः, पत्न्याः क्षार इव क्षते पतिमृतौ यस्यापहारः किल । आपाथोधिकुमारपालनृपतिर्देवो रुदत्या धनं; बिभ्राणः सदयः प्रजासु हृदयं मुञ्चत्ययं तत् स्वयम् ॥ कविप्रतिभा से चित्रित इस चित्र में नामनिर्देश भले ही काल्पनिक हो परन्तु यह सारा चित्र काल्पनिक नहीं है । इसमें वर्णित घटना अनैतिहासिक नहीं है। इस घटना के अनुरूप अवश्य ही कोई घटना घटी होगी । यह चित्र कुमारपाल की महानुभावता को उत्तम रूप में प्रतिबिम्बित करता है । Jain Education International इस प्रकार मृत-स्व-मोचन द्वारा प्रजाहित का कार्य करके कुमारपाल ने इस कीर्ति को प्राप्त किया जिसे सत्ययुग में होनेवाले रघु नहुष, नाभाग और भरत आदि परम धार्मिक राजा भी प्राप्त नहीं कर सके। इसीसे प्रसन्न होकर आचार्य हेमचन्द्र उसकी प्रशंसा करते हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy