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अणहिल्लवाड के राज्य की सीमा बहुत विशाल मालूम देती है । दक्षिण में ठेठ कोलापुर के राजा उसकी आज्ञा मानते थे, और भेंट भेजते थे। उत्तर में काश्मीर से भी भेटें आती थी । पूर्व में चेदी देश तथा यमुना पार और गंगा पार के मगधदेश पर्यन्त आज्ञा पहुंची थी। और पश्चिम में सौराष्ट्र तथा सिन्धु देश तथा पंजाब का भी कितनाक हिस्सा गुजरात के ताबे में था । 'राजस्थान इतिहास' के कर्ता कर्न टॉड साहब को, चितौड के किले में, राणा लखणसिंह के मन्दिर में एक शिलालेख मिला था, जो संवत् १२०७ का लिखा हुआ है । उसमें महाराज कुमारपाल के विषय में लिखा है कि "महाराज कुमारपाल ने अपने प्रबल पराक्रम से सब शत्रुओं को दल दिये, जिसकी आज्ञा को पृथ्वी पर के सब राजाओं ने अपने मस्तक पर चढाई। जिसने शाकंभरी के राजा को अपने चरणों में नमाया । जो खुद हथियार पकड़ कर सवालक्ष (देश) पर्यन्त चढा और जिसने सब गढ़पतियों को नमाया । सालपुर (पंजाब) तक को भी उसने उसी तरह वश किया ।" (वेस्टर्न इन्डिया, टॉड कृत)
इन सब प्रमाणों से महाराज कुमारपाल के राज्य के विस्तार का ख्याल हो जाता है । भारतवर्ष में, इतने बड़े साम्राज्य को भोगनेवाले राजा बहुत कम हुए ।
आपकी राजधानी अनहिलपुर-पाटन, भारत के उस समय के सर्वोत्कृष्ट नगरों में से, एक थी । वह व्यापार और कला-कौशल से बहुत बढ़ी चढ़ी थी, समृद्धि के शिखर पहुँची हुई थी। राजा और प्रजा के सुन्दर महलों से तथा पर्वत के शिखर से ऊँचे और मनोहर देवभुवनों से अत्यन्त अलंकृत थी । हेमचन्द्राचार्य ने 'व्याश्रय महाकाव्य' में इस नगरी का बहुत वर्णन किया है। सुना जाता है कि उस समय इस नगर में १८०० तो क्रोडाधिपति रहते थे ! इस प्रकार महाराज एक बड़े भारी महाराज्य के स्वामी थे ।
आज प्रजा का पालन पुत्रवत् करते थे। अपने राज्य में एक भी प्राणी को दुःखी नहीं रखना चाहते थे । प्रजा आपको 'राम' का ही दूसरा अवतार समझती थी । प्रजा की अवस्था जानने के लिए, गुप्त वेश से आप शहर में भ्रमण करते थे । हेमचन्द्राचार्य कहते हैं कि"दरिद्रता, मूर्खता, मलिनता इत्यादि से जो लोक पीडित होते हैं वे मेरे निमित्त से हैं या अन्य से ? इस प्रकार औरों के दुःखों को जानने के लिए राजा शहर में फिरता रहता था ।" इस प्रकार जब गुप्त भ्रमण में महाराज को जो कोई दुःखी हालत में नजर पड़ता था, तो आप झट अपने स्थान पर आ कर, उसके दुःख दूर करने की चेष्टा करते थे । 'व्याश्रय महाकाव्य' के अन्तिम सर्ग (२०) में भगवान् श्रीहेमचन्द्र लिखते हैं कि-"महाराज कुमारपाल ने एक दिन रास्ते में, एक गरीब मनुष्य को, चिल्लाते हुए और जमीन पर गिरते-पड़ते हुए ऐसे ५-७ बकरों को खीच कर ले जाता हुआ देखा । महाराज ने पूछा कि-'इन मरे हुए जैसे बिचारे पामर प्राणियों को कहाँ ले जाता है ? ।' उस मनुष्य ने कहा-'इनको कसाई के यहाँ बेचकर, जो कुछ पैसा आएगा, उससे उदरनिर्वाह करूँगा।' यह सुनकर महाराज बड़े खिन्न हुए और सोचने
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