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भूमण्डल में फैलानेवाला, भव्यजनरूप कमनीय कुमुदों को विकस्वर करनेवाला और अपनी अपूर्व ज्ञानज्योत्स्ना द्वारा, अज्ञानांधकार से आछन्न भारत धराको उज्ज्वल करनेवाला, तथा जिसका प्रकाश शाश्वत रहनेवाला है ऐसे लोकोत्तर चन्द्र के समान, इस महामुनींद्र हेमचन्द्र का, प्राचीदिक्सदृश पूजनीया देवी पाहिनी के पवित्र गर्भ से अवतार हुआ था । 'जगत् में, जब जब धर्म की कोई विशेष हानि होने लगती है तब तब, उसकी रक्षा करने के लिए अवश्य ही किसी महाज्योति-युगप्रधान का अवतार होता है' इस प्राकृतिक नियमानुसार, जब जैनधर्म में विशेष क्षीणता पहुँचने लगी, परस्पर साम्प्रदायिक झगडों की जड़ जमने लगी, विपक्षिओं की ओर से अनेक प्रकार के प्रहार पड़ने लगे और जैनों का आत्मसंयम शिथिल होने लगा, तब, समाज कोई न कोई ऐसी व्यक्ति की अपेक्षा कर रहा था कि जो अपने सामर्थ्य द्वारा, जैनधर्म पर घिरे हुए, इस विपत्ति रूप बादल का संहार करे । समाज के इस मनोरथ को भगवान् हेमचन्द्र ने पूर्ण किया । इस प्रचण्ड गति वाले महान् दिव्य वायु के सामर्थ्य से वह मेघाडम्बर उड गया ।
दीक्षाग्रहण
चन्द्रगच्छ के मुकुट स्वरूप श्रीदेवचन्द्रसूरि ने अपने ज्ञानबल से, इस व्यक्तिद्वारा जैनधर्म का महान् उदय होनेवाला जानकर, नव वर्ष वाले इस छोटे से बच्चे को ही, संवत् ११५४ में चारित्ररूप अमूल्य रत्न सोंप दिया ! पाठकों को यह पढ़कर आश्चर्य होगा कि इतना छोटा बच्चा साधुपने की जिम्मेदारियों को क्या समझता होगा और साधुजीवन की कठिनाईयों को कैसे सहन कर सकता होगा ? तथा बहुत से अज्ञान मनुष्य इस बात पर उपहास्य ही करेंगे। परन्तु यह एक उनकी अज्ञानजन्य भूल ही समझना चाहिए । महापुरुषों का चरित्र लौकिक न हो कर लोकोत्तर होता है, यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए । चाहे वे वय और शरीर से भले ही छोटे हों, परन्तु सामर्थ्य उनका बहुत बड़ा होता है । वे अपने समकालीन लाखों मनुष्यों जितनी शक्ति, अकेले ही धारण करे रहते हैं। जगत् में उनकी पूजा अपूर्व गुणों के कारण ही होती है, वय या शरीर के निमित्त से नहीं । 'गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः ।' यदि जगत् का इतिहास ध्यान से देखा जाय तो इस बात के प्रमाणभूत बहुत से उदाहरण मिलेंगे । भारतवर्ष में अनेके ऐसे महापुरुष हो गए हैं, जिन्होंने, साधारण जनसमाज की चर्मचक्षु में दीख पड़ने वाली बाल्यावस्था में ही, अपूर्व कार्य किए हैं। श्रीशंकराचार्य तथा महाराष्ट्रीय भक्तशिरोमणि ज्ञानदेव जैसे समर्थ पुरुषों ने १५-१६ वर्ष जैसी अल्प वय में ही, गहनतत्त्वपूर्ण भाष्य लिख डाले थे, कि जिनको समझने के लिए भी साधारण मनुष्यों की तो आयु ही खतम हो जाती है । जैनाचार्य श्रीअभयदेवसूरि, सोमसुन्दरसूरि आदि अनेक पुरुषों ने बाल्यावस्था में ही बड़े बड़े प्रतिष्ठित आचार्यादि पद प्राप्त किये थे । प्रो० पीटरसन, इस अल्पवय में दीक्षा देनेवाली बात ऊपर लिखते हैं कि-"देवचन्द्र ने इस छोटे से बच्चे को
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