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________________ ३६ Cunnigham), के 'हिंदुस्थान का प्राचीन भूगोल' (The Ancient Gegography of India) वाली हकीकत को पुष्ट करती है । जुदा जुदा देशों को जीतना, विद्या-कला-कौशल्य आदि का देश में प्रचार करना, नीति और धर्ममय जीवन बिताने के लिए प्रजा को अनेक तरह से प्रवृत्त करना, हिंसा, व्यसन आदि अध:पात करानेवाले अकृत्यों का सर्वथा नाश कराना और सोमेश्वर, शत्रुजयादि विविध तीर्थों का जीर्णोद्धार कराना व अनेक नवीन मन्दिरों का बनवानाइत्यादि विविध विषयों का मनोहर विवेचन इस पुस्तक में किया गया है। अधिक क्या ? उस समय की राजकीय, धार्मिक और सामाजिक स्थिति का एक उत्तम चित्ररूप यह प्रबन्ध है । इसी ही 'कुमारपालप्रबन्ध' के ऊपर से लेखकने (स्व० मुनि ललितविजयजी ने) संक्षेप में, यह 'कुमारपालचरित' विशेष कर राजपूताना और पंजाबादि देशवासी जैनी भाईयों के हितार्थ हिन्दी में लिखा है। इस पुस्तक में दो ऐसे महान् पुरुषों का वर्णन है कि जिनकी समानता करनेवाले उनके बाद, फिर इस भारतवर्ष में कोई हुए ही नहीं । इन पुण्य प्रभावकों के सम्पूर्ण गुणों का वर्णन तो साक्षाद् बृहस्पति भी करने को समर्थ नहीं है, परन्तु 'शुभे यथाशक्ति यतनीयम्' इस सूक्ति के अनुसार प्रबन्ध के मूल लेखक (श्रीजिनमण्डनगणि) ने, इन महात्माओं के प्रति अपना भक्तिभाव प्रकट करने के लिए, पूर्व ग्रन्थों द्वारा तथा वृद्ध जनों के मुख द्वारा, जो कुछ वृत्तान्त श्रवणगोचर हुआ उसको भावी प्रजा के हितार्थ पुस्तक रूप में लिखकर, अपनी परोपकार वृत्ति प्रकट की । इन प्रातःस्मरणीय महर्षि और राजर्षि के आदर्श जीवन का एक क्षण भी ऐसा नहीं है कि जिसका जानना अनुपयुक्त हो, परन्तु पूर्वकालीन भारतीयों का, आधुनिकों की तरह इतिहास तत्त्व की तरफ विशेष लक्ष्य न होने से, इन महात्माओं के समग्रजीवनचरित्ररूप अमृत का पान कर, हम अपनी आत्मा को सन्तुष्ट नहीं कर सकते । इस प्रबन्ध में जिन बातों का उल्लेख है, वह केवल खास खास विशेष घटनाओं का ही समझना चाहिए । ___यहाँ पर हम यदि, पाठकों के सुबोधार्थ इन महापुरुषों पवित्र चरित्र का कुछ सारांश लिख देवें तो सम्भव है विशेष उपयुक्त होगा। महर्षि श्रीहेमचन्द्राचार्य स्तुमस्त्रिसंध्यं प्रभुहेमसूरेरनन्यतुल्यामुपदेशशक्तिम् । अतीन्द्रियज्ञानविर्जितोऽपि यः क्षोणिभर्तुळधित प्रबोधम् ॥ -श्रीसोमप्रभाचार्य । विक्रम संवत् ११४५ की कार्तिकी पूर्णिमा को, सकलसत्वसमूह को अद्वितीय आह्लाद उत्पन्न करनेवाला, सांसारिक विषयों के आन्तरिक दाह से संतप्त आत्माओं को शान्ति पहुँचाने वाला, सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप अलौकिक रत्नों को अपने गर्भ में रखनेवाले पवित्र जैनधर्मरूप महासागर की, आनन्दोत्पादक भगवती अहिंसास्वरूपिणी तरंगों को अखिल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
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